श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 19
सूत्र - 16
सूत्र - 16
आत्मा के संकोच विस्तार स्वभाव को दीपक के उदाहरण के उदाहरण से समझिए। आत्म प्रदेशों का निम्नतम संकोच। व्यवहार में जीव का संकोच और विस्तार स्वभाव है। जैसे मिट्टी में पानी वैसे जीव में कर्म। सिद्धों में संकोच और विस्तार नहीं होता है। दीपक के उदाहरण से संकोच और विस्तार को समझते है।
प्रदेशसंहार- विसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥5.16॥
Vatsalya Jain
Sagar
WINNER-1
Ekta Jain
Deoband Saharanpu
WINNER-2
Sushilathote
Ashta
WINNER-3
निम्न में से कौनसा जीव संकोच विस्तार नहीं करेगा?
वनस्पतिकायिक जीव
भोग भूमि का मनुष्य
नारकी
अयोग केवली*
सूत्र सोलह प्रदेशसंहार- विसर्पाभ्यां प्रदीपवत् में आचार्य उमास्वामी महाराज बताते हैं
कि जीव के प्रदेशों का संकोच और विस्तार भी होता है
लोकाकाश में
पुद्गल एक से लेकर संख्यात, असंख्यात प्रदेश धारण कर सकता है
लेकिन जीव लोकाकाश का असंख्यातवाँ भाग जरूर ग्रहण करेगा
लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों को घेरते हुए उसका शरीर छोटा-बड़ा भी होगा
और आत्मा के प्रदेशों में भी संकोच और विस्तार होगा
यह आत्मा का स्वभाव है
जब तक आत्मा कर्म सहित, संसार अवस्था में है
तब तक उसके अंदर संकोच-विस्तार या संहार-विसर्पण का स्वभाव रहता है
जीवों की अवगाहना कभी छोटी कभी बड़ी होती है
द्रव्य संग्रह के अनुसार अणु-गुरू-देह पमाणो - जीव अणु और गुरु देह प्रमाण हो जाता है
जैसे निगोद जीव में भी असंख्यात प्रदेश हैं
और वह लोक के असंख्यातवें भाग में रह रहा है
किन्तु प्रदेशों के संकोच के कारण उसकी अवगाहना सबसे सूक्ष्म - घनांगुल का असंख्यातंवाँ भाग ही होती है
आत्मा के प्रदेशों का इससे अधिक संकोच संभव नहीं है
जैसे पुद्गल एक प्रदेश में भी रह सकता है
जीव संकुचित होकर भी संख्यात प्रदेशों में नहीं रह सकता
उसे कम से कम लोक का असंख्यातवाँ भाग तो चाहिए होगा ही
उत्कृष्ट अवगाहना वाले जीव अपने आत्मप्रदेशों का विस्तार करते हुए ही उत्कृष्ट अवगाहना को प्राप्त करते हैं
ये बिल्कुल वैसा ही है जैसे दीपक अगर छोटे से डिब्बे में है तो उसे प्रकाशित करेगा
और अगर बड़ी टंकी में है तो उसे भी प्रकाशित करेगा
यह प्रदीपवत दीपक का उदहारण सिर्फ संसारी अवस्था के लिए है
इसी प्रकार अवगाहना के अनुसार आत्मा के प्रदेशों का संकोच-विस्तार हो जाता है
केवली समुद्रघात के समय जीव अपने प्रदेशों को पूरे लोकाकाश में फैला सकता है
यह उसका सबसे बड़ा विस्तार है
जो लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों तक है
4. निगोद जीव का ज्ञान सर्व जघन्य होता है
इसे नित्य उद्घाटित ज्ञान कहते हैं
और इससे कम ज्ञान होने पर जीव का अस्तित्व ही नहीं रहता
5. हमने जाना कि जीव का वास्तविक परमार्थ स्वभाव संकोच या विस्तार करना नहीं है
उसका यह स्वभाव कर्मों के कारण व्यवहार से है
और विशेष रूप से नाम कर्म के कारण से है
कर्म के उदय से जीव छोटा या बड़ा शरीर धारण करता है
और उसके अनुसार उसकी अवगाहना बन जाती है
6. ऐसा भी नहीं है कि जीव स्वाभाव से विस्तार करता रहता है
और कर्म के अभाव में वह, ऊपर से दबाव हटने के कारण, पूरे लोक में फैल जाता है
जब जीव कर्म से अलग होता है, तो उसका उस समय का आकार हमेशा के लिए बना रहता है
7. सिद्धावस्था में जीव की अवगाहना
निश्चित आकृति के साथ अन्तिम चरम शरीर से कुछ न्यून होती है
कर्म रहित होने पर उनमें संकोच-विस्तार नहीं होता
8. जैसे जब तक मिट्टी में पानी होता है
तब तक मिट्टी की shape बदली जा सकती है
पर पानी सूखने के बाद उसकी shape नहीं बदल सकते
इसी प्रकार जब तक जीव के साथ कर्म रूपी पानी है
तब तक वह निगोदिया, तिर्यंच, स्थावर आदि शरीर ग्रहण कर संकोच विस्तार करता है
मगर कर्म रूपी जल सूखने पर वह अपनी अंतिम आकृति में ही रहता है
9. हमने जाना कि सिद्धों में संकोच और विस्तार नहीं होता
उनकी आकृति में भी कोई परिवर्तन नहीं होता
उनके आत्मप्रदेश हलन-चलन रहित, अचल होते हैं
10. अयोग केवली अवस्था में योगों से रहित होने पर
संकोच विस्तार स्वभाव भी छूट जाता है
और आत्मा की shape बन जाती है
जो फिर सिद्ध अवस्था में भी अनंत काल तक बनी रहती है