श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 21
सूत्र - 13,14
सूत्र - 13,14
प्रज्ञा परीषह को कैसे जीतते हैं? सम्यग्दृष्टि में भी होता है ‘मैं पने’ का भाव । सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के ‘मैं पने’ के भाव में अन्तर। ज्ञानावरण कर्म- प्रज्ञा परीषह का कारण। अदर्शन और अलाभ परीषह के निमित्त तथा अदर्शन परीषह की विवेचना। दर्शन मोहनीय, मिथ्यात्व कर्म होते हुए भी कैसे होता है, अदर्शन परीषह का निमित्त? ‘सम्यक्त्व’ दर्शन मोहनीय कर्म के भेद का विवेचन, अदर्शन परीषह के परिपेक्ष में। सम्यक् प्रकृति के उदय में होने वाले चल-मल-अगाढ़ दोष और अदर्शन परीषह में अन्तर।
ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने॥9.13॥
दर्शन-मोहान्तराययो-रदर्शना-लाभौ॥9.14॥
06, nov 2024
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अदर्शन परिषह का कारण क्या बताया गया?
दर्शनावरण
वेदनीय
दर्शन मोहनीय*
चारित्र मोहनीय
परीषहों के प्रकरण में आज हमने जाना कि
प्रज्ञा परीषह में लोगों से यह सुनकर
कि ‘आप ज्ञानी हैं’,
यह भाव तो आता है
कि ‘मैं प्रज्ञावान हूँ’,
किन्तु मुनिराज उसमें रस नहीं लेते,
वे अपने से बड़े ज्ञानियों की प्रशंसा और चिन्तन करते हैं।
वे स्वयं घमण्ड नहीं करते
और परीषह को जीतते हैं।
हमने जाना कि ‘मैं पने’ का भाव
एकान्त से सिर्फ मिथ्यादृष्टि में ही नहीं होता,
बल्कि सम्यग्दर्शन के साथ भी रहता है,
गृहस्थ सम्यग्दृष्टियों को भी होता है।
जैसे क्षायिक सम्यग्दृष्टि भरत चक्रवर्ती में
यह भाव था कि ‘मैं चक्रवर्ती हूँ’।
तभी वे बाहुबली जी से
अपना चक्रवर्तीपना स्वीकार करवाना चाह रहे थे।
बाहुबली जी उन्हें भाई के नाते तो
नमस्कार करने के लिए तैयार थे
किन्तु चक्रवर्ती के नाते नहीं।
इस ‘मैं’ भाव पर ही दो क्षायिक सम्यग्दृष्टि लड़ गए
और भाई ने भाई पर चक्र चला दिया
यह भी भूल गए कि
सगे भाई पर चक्र नहीं चलता।
मिथ्यादृष्टि का ‘मैं’ मतलब शरीर होता है,
वह शरीर और आत्मा को नहीं जानता।
इसके विपरीत, आत्मा-शरीर को जानने वाला
परीषह को सहते हुए
‘मैं’ भाव करता है।
परीषह जीत लेने पर
‘मैं’ की जरुरत नहीं रहती।
परीषह होने से, या जीत लेने से, या नहीं जीत लेने से
गुणस्थान नहीं गिरता।
बस कर्मों के संवर और निर्जरा में अन्तर आता है।
मैं ज्ञानवान हूँ - ऐसा महसूस करने से
चारित्र गिर नहीं जाता,
संयम बना रहता है।
इसलिए हमें सिर्फ पूर्व धारणाओ में नहीं जीना चाहिए।
बुद्धि को खोलकर रखना चाहिए।
सिर्फ दर्शनमोहनीय ही ‘मैं’ भाव नहीं कराता
ज्ञानावरण कर्म भी कराता है।
अवधि ज्ञानी, मनःपर्यय ज्ञानी सम्यग्दृष्टि मुनि महाराज
जिनके ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम अच्छा है
उन्हें भी प्रज्ञा परीषह हो सकती है।
उनके दर्शनमोहनीय तो होता ही नहीं
वहाँ ज्ञानावरण ही ‘मैं’ भाव कराता है।
ज्ञान आत्मा का वैभव है
वही ज्ञान उन्हें ज्ञानीपन का भाव कराता है।
और इसी link से
अज्ञान परीषह भी इसी ज्ञानावरण कर्म से होता है।
सूत्र चौदह - दर्शन-मोहान्तराययो-रदर्शना-लाभौ में हमने जाना-
दर्शनमोहनीय कर्म के उदय में अदर्शन परीषह होता है,
जिसमें यह भाव आता है कि
इतनी तपस्या करने के बाद भी
हमें कोई ऋद्धि नहीं हुई,
कोई विद्या सिद्ध नहीं हुई,
चारित्र का कोई विशेष प्रभाव नहीं दिख रहा।
मुनि श्री ने हमें चिन्तन दिया कि
विद्वत् जन दर्शनमोहनीय को मिथ्यात्व कर्म बताते हैं।
हम कई जगह पढ़ते भी हैं कि
चारित्र मोहनीय यानि अनन्तानुबन्धी आदि कषायें
और दर्शनमोहनीय मतलब मिथ्यात्व।
पर यह परीषह तो चारित्रधारी मुनियों के हैं
तो क्या अदर्शन परीषह होने पर
मुनि सम्यग्दर्शन से च्युत होकर,
मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं?
और क्या उनका पहला गुणस्थान हो जाता है?
इसका समाधान यह है कि
सम्यग्चारित्र के साथ मिथ्यात्व की कोई संगति नहीं बैठती।
परीषह सहने या ना सहने से
गुणस्थान नहीं बदलते।
हमने आँठवे अध्याय में दर्शनमोहनीय के तीन भेद जाने थे
मिथ्यात्व,
सम्यक् मिथ्यात्व और
सम्यक्त्व
इनमें से सम्यक्त्व के साथ यह परीषह होता है।
सामान्य सम्यग्दृष्टि को यह सम्यक् प्रकृति
चल-मल और अगाढ़ दोष लगाती है
लेकिन चरित्रवान को अदर्शन परीषह कराती है।
इसके कारण वे मिथ्यात्व से comparison करते हैं, कि
मिथ्यादृष्टियों को तो तरह-तरह की शक्तियाँ हो रही है,
वे चमत्कार और प्रभाव दिखा रहे है।
और यहाँ हम सम्यग्दृष्टि बनकर,
शुद्ध तरीके से चल रहे है
और हमें कोई ऋद्धि,
कोई शक्ति नहीं हो रही।
इस प्रकार यह चल-मलापन अदर्शन परीषह कराता है।
हमने जाना -
अलाभ परीषह अन्तराय कर्म के उदय से होता है।