श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 32
सूत्र - 36
सूत्र - 36
चारित्र को धारण करने वाले पुरुष चारित्र आर्य कहलाते हैं। दर्शन आर्य। ऋद्धि और बिना ऋद्धि वाले आर्य। सात ऋद्धियों के आधार पर आर्यों का विभाजन। समस्त ज्ञान सम्बन्धी ऋद्धि बुद्धि ऋद्धि में आती हैं। ऋद्धियों के बारे में विस्तार से राजवार्तिक आदि बड़े ग्रंथों से जाने। कर्मभूमि म्लेच्छों के भी दो भेद हैं। अन्तरद्वीपज म्लेच्छ ढाई द्वीप के दो समुद्रों में रहते हैं। लवण समुद्र में अन्तरद्वीपज म्लेच्छों के रहने के ४८ स्थानों की व्यवस्था।
आर्या म्लेच्छाश्च ॥3.36॥
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चारण ऋद्धि कौनसे प्रकार की ऋद्धि होती है?
तप ऋद्धि
बल ऋद्धि
क्रिया ऋद्धि*
अक्षीण ऋद्धि
1.हमने जाना कि आर्य पाँच प्रकार के होते हैं
पहले क्षेत्र आर्य जो आर्य स्थानों में रहते हैं
दूसरे जात्य आर्य जो श्रेष्ठ वंशों में जन्म लेते हैं
तीसरे कर्म आर्य जो कर्म से आर्य होते हैं
ये तीन प्रकार के होते हैं सावद्य , अल्प सावद्य और असावद्य
सावद्य का मतलब है- जहाँ पर हिंसा हो
ये गृहस्थ छह कर्म - असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प के माध्यम से अपनी आजीविका चलाते हैं
और इसी प्रयोजन से जीवन चलाने के लिए ज़रूरी एकेन्द्रिय स्थावर आदि जीवों की हिंसा करते हैं
ये हिंसा के माध्यम से अपनी आजीविका नहीं चलाते
अल्प सावद्य कर्म आर्य अपने आप को त्रस हिंसा से विरक्त रखते हैं
ये पंचम गुणस्थान वाले देशसंयमी व्रती श्रावक-श्राविका होते हैं
सभी प्रकार की सावद्य कर्म से रहित यति-मुनि असावद्य कर्म आर्य होते हैं
चौथे चारित्र आर्य जो चारित्र को धारण करते हैं
अधिगत चारित्र आर्य किसी के उपदेश से और
अनधिगत चारित्र आर्य बिना उपदेश के चारित्र धारण करते हैं
और अंतिम दर्शन आर्य सम्यग्दर्शन से सहित मनुष्यों को कहते हैं
ये पाँचों तरह के आर्य अनऋद्धि प्राप्त आर्य होते हैं
क्योंकि इनको ऋद्धि प्राप्त नहीं होती
ऋद्धि प्राप्त आर्य कोई न कोई ऋद्धि प्राप्त होते हैं
ऋद्धियाँ मूलतः सात होती हैं
जो भेद-उपभेद करके अड़तालीस या चौंसठ हो जाती हैं
हमने सात ऋद्धिओं के बारे में भी जाना
पहली बुद्धि ऋद्धि में समस्त ज्ञान सम्बन्धी ऋद्धि में आती हैं
जैसे कोष्ठ बुद्धि, बीज बुद्धि, सभिन्न श्रोतृ, पादानुसारी, दस पूर्वी, चौदस पूर्वी, अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञान आदि ऋद्धियाँ
दूसरी क्रिया ऋद्धि दो प्रकार की होते है
क्रिया ऋद्धि में मुख्य रूप से आकाश गमन और चारण ऋद्धि होता है
और विक्रिया ऋद्धि में अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा इत्यादि ऋद्धियाँ आती हैं
तीसरी तप ऋद्धि में उग्र तप, महा तप, दीप्त तप, तप्त तप आदि ऋद्धियाँ आती हैं
चौथी बल ऋद्धि में मनोबल, वचनबल और कायबल की ऋद्धि होती हैं
पाँचवीं औषध ऋद्धि अनेक प्रकार की औषधियों के रूप में काम आती हैं
जैसे- विप्पौसहि, खिल्लौसहि, जल्लौसहि, सव्वौसहि (सर्वौषधि), मल्लौषधि आदि ऋद्धियाँ
छटवीं रस ऋद्धि में मधुरस्रावी, सर्पिस्रावी, क्षीरस्रावी जैसी रस ऋद्धियाँ आती हैं
ऐसी ऋद्धि प्राप्त मुनिराज के हाथ में घी, दूध, अमृत जैसा रस उनके हाथों में खुद ही झरने लग जाता है
सातवीं अक्षीण ऋद्धि दो प्रकार की होती है
अक्षीण आलय ऋद्धि में मुनि महाराज के समक्ष कितनी भी जनता आ जाए, स्थान की कमी नहीं पड़ती
और अक्षीण महानस ऋद्धि में जिस बर्तन से मुनि महाराज ने आहार लिया, फिर कितने भी लोग आहार कर जाएँ, उस बर्तन में आहार की कमी नहीं पडती
ऋद्धियों के बारे में राजवार्तिक, तिलोयपण्णत्ति आदि बड़े ग्रंथों में और चौंसठ ऋद्धि विधान में जानकारी मिलती है
हमने जाना कि म्लेच्छ दो प्रकार के होते हैं - कर्मभूमिज और अन्तरद्वीपज
कर्मभूमिज म्लेच्छ कर्मभूमि के आस-पास रहते हैं
समर, पुलिंद, किरात आदि जातियाँ कर्म भूमिज होते हैं
इनका धर्म-कर्म से प्रयोजन नहीं रहता है
ये हिंसादि पापों में ही आनंद मनाते हैं
अन्तरद्वीपज म्लेच्छ लवण समुद्र के अड़तालीस और कालोदधि समुद्र के अड़तालीस स्थानों में रहते हैं
ये समुद्र के किनारे और अंदर रहते हैं