श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 56
सूत्र -39
सूत्र -39
शुक्ल ध्यान के चार भेद। पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यान। ध्येय में परिवर्तन होते हुए भी शुक्लध्यान हो रहा है क्योंकि वह शुक्ल लेश्या है। एकत्व वितर्क वीचार’ ध्यान। दोनों शुक्ल ध्यानों की मुख्य विशेषता। सूक्ष्म क्रिया यानी केवली भगवान की क्रियाएँ। सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती ध्यान। इस ध्यान में किसी तरीके का प्रतिपात नहीं होता है। पहले दो शुक्लध्यान प्रतिपाती हो जाते हैं केवल तीसरा शुक्लध्यान है वही अप्रतिपाती होता है। अयोग का मतलब मन वचन काय की किसी भी तरह की कोई भी activity नहीं होगी। पहले शुक्लध्यान का काम मोह का क्षय करना।
पृथक्त्वैकत्व-वितर्क-सूक्ष्म- क्रिया-प्रतिपाति-व्युपरत-क्रियानिवर्तीनि॥9.39॥
04, Feb 2025
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कितने पूर्व के ज्ञाता श्रुतकेवली कहलाते हैं?
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शुक्ल ध्यान के भेदों में हमने जाना-
पहला पृथक्त्व-वितर्क-वीचार शुक्ल ध्यान होता है।
पृथक्त्व अर्थात भिन्नपना, अलग-अलग।
वितर्क अर्थात श्रुतज्ञान से मन में होने वाला विचार
वीचार अर्थात अनेक चीजों में संक्रमण होना
जिसका ध्याता चिन्तन करता है, उसे ध्येय कहते हैं।
पर इस ध्यान में ध्येय स्थिर नहीं रहता।
वह कभी द्रव्य, कभी गुण, तो कभी पर्याय रूप बदलता रहता है।
यह स्थिरता की कमी है।
पर शुक्ल लेश्या और विशुद्धि के कारण यह शुक्ल ध्यान कहलाता है।
इसमें मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से
आत्मा की विशुद्धि निरन्तर बढ़ती रहती है।
और वह जीव अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण आदि परिणामों में ढ़लता जाता है।
ध्येय बदलते-बदलते जब एकाग्र होने लग जाता है तो
दूसरा ‘एकत्व-वितर्क-अवीचार’ शुक्ल ध्यान होता है।
इसमें वितर्क होता है
भीतर चलने वाले शब्दों में परिवर्तन चलता है
पर वह सूक्ष्म होता है।
परंतु श्रुतज्ञान किसी एक विषय में एकाग्र हो जाता है
यानि वीचार यानि ध्येय में परिवर्तन नहीं होता।
प्रथम दोनों ध्यान पूर्वविद या श्रुत-केवलियों को होते हैं।
यूँ तो नौ, दस या चौदह पूर्वों के ज्ञाता पूर्वविद,
और सम्पूर्ण चौदह पूर्वों के ज्ञाता श्रुतकेवली कहलाते हैं।
लेकिन जिन्हें नौ या दस पूर्वों का ज्ञान हो जाता है
वे चौदह पूर्व के ज्ञाता हो ही जाते हैं।
उसमें उन्हें अधिक समय और पुरुषार्थ नहीं लगता
इसलिए यह वाक्य भी ठीक है
कि श्रुत केवलियों को ‘ही’ प्रथम दो शुक्ल ध्यान होते हैं।
‘सूक्ष्म-क्रिया-अप्रतिपाति’ नामक तीसरे शुक्ल ध्यान में
‘सूक्ष्म क्रिया’ का अर्थ है केवली भगवान की सूक्ष्म मन-वचन-काय योग की क्रियाएँ
जब केवली भगवान सूक्ष्म काययोग में स्थित होते हैं
तब यह ध्यान होता है।
जब उनकी आयु एक अन्तर्मुहूर्त रह जाती है
तब वे वेदनीय, नाम, और गोत्र कर्मों की स्थितियों को
आयु कर्म के बराबर करने के लिए समुद्घात करते हैं।
उसके बाद वे बादर काय योग में स्थित होकर
पहले बादर मनोयोग और वचनयोग को
और फिर काय योग को सूक्ष्म करते हैं।
फिर सूक्ष्म काययोग में स्थित होकर
सूक्ष्म मनोयोग और वचनयोग का अभाव करते हैं,
तब केवल सूक्ष्म काय योग के रहने पर तृतीय शुक्ल ध्यान होता है।
इसमें प्रतिपात यानी गिरना नहीं होता।
यह विषय हमें धवला आदि ग्रन्थों से स्पष्ट होता है।
पहले के दो ध्यान वाले गिर भी सकते हैं।
सूत्र की टीकाओं में-
पहला शुक्ल ध्यान ग्यारहवें
और दूसरा बारहवें गुणस्थान में होता है,
ऐसा कहा गया है
पर धवलाकार आचार्य वीरसेन जी के अनुसार
बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय में भी कुछ परिवर्तन सम्भव होता है
जिससे वहाँ पहला शुक्ल ध्यान सम्भव है
और ग्यारहवें गुणस्थान में भी दूसरा शुक्ल ध्यान सम्भव है
यानि ग्यारहवें, बारहवें दोनों गुणस्थानों में दोनों ध्यान सम्भव हैं
तो ग्यारहवें गुणस्थान से उनका गिरना होगा
यानि प्रतिपात होगा।
अतः पहले के दो शुक्लध्यान प्रतिपाति हैं
तेरहवें गुणस्थान के अन्त में तृतीय शुक्ल ध्यान
और चौदहवें में पहुँच कर
अयोगी अवस्था में चतुर्थ शुक्ल ध्यान होता है।
इसमें तीनों योगों का अभाव हो जाता है,
उनकी प्रवृत्तियाँ रुक जाती हैं।
योगों से आत्म प्रदेशों में परिस्पन्दन होता है,
जिससे निवर्ति यानि रचना होती है।
यहाँ यह सब छूट जाता है
श्वासोच्छ्वास की क्रिया भी काय योग के माध्यम से होती है
इसलिए अयोगी होने पर वह भी छूट जाती है।
इसे ही व्युपरत मतलब छूट जाना
या समुच्छिन्न यानी अभाव होना कहते हैं।
यही व्युपरत-क्रिया-निवर्ति या समुच्छिन्न-क्रिया-निवर्ति नामक
चतुर्थ शुक्ल ध्यान होता है।
पहले शुक्लध्यान का काम
मोह का उपशमन या क्षय करना होता है।
उपशमन हुआ तो ग्यारहवाँ गुणस्थान
और क्षय हुआ तो इसका फल बारहवें गुणस्थान तक पहुँचाना हो जाता है।