श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 03
सूत्र - 01,02
सूत्र - 01,02
आस्रव के हेतु का संवर। गुणस्थानों में क्रमानुसार आस्रव के कारणों का संवर होता है। कर्म प्रकृतियों का बंध रुक जाना ही संवर है। पूर्ण संवर पाँचों प्रकार के प्रत्ययों के माध्यम से होगा। संवर के लिए छह प्रकार के पुरुषार्थ। प्रथम पुरुषार्थ तीन प्रकार की गुप्ति है।
आस्रव निरोधः संवर:॥9.01॥
स गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषहजयचारित्रै:॥9.02॥
03, oct 2024
Nisha Talati
.Indore
WINNER-1
Usha Dhirawat
Banswara
WINNER-2
Smita Jain
Delhi
WINNER-3
कौनसे गुणस्थान में किसी भी प्रकृति का बंध नहीं रुकता?
पहले गुणस्थान में
दूसरे गुणस्थान में
तीसरे गुणस्थान में*
चौथे गुणस्थान में
हमने जाना कि आस्रव का रुकना संवर होता है।
जिस गुणस्थान के साथ जितनी प्रकृतियों का अविनाभाव सम्बन्ध होता है
वहीं तक उनका बन्ध होता है
और उसके अन्त में उनकी बन्ध-व्युच्छित्ति हो जाती है।
आगे के गुणस्थान के लिए उनका संवर हो जाता है।
पहले गुणस्थान में सोलह प्रकृतियों का,
दूसरे में पच्चीस,
तीसरे में zero,
चौथे में दस,
पाँचवें में चार,
छठवें में छह,
सातवें में एक,
आठवें में छत्तीस,
नौवें में पाँच, और
दसवें में सोलह
प्रकृतियों का बन्ध होता है,
उनका आगे-आगे के गुणस्थान में संवर होता जाता है।
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से आस्रव होता है।
सर्वप्रथम मिथ्यात्व का आस्रव रोका जाता है।
मिथ्यात्व के साथ सोलह प्रकृतियों का अविनाभावी सम्बन्ध होता है
अर्थात् ये इसके साथ नियम से बंधती हैं
प्रथम गुणस्थान के बाद इनका बन्ध नहीं होता।
इनके रुकने पर जीव प्रथम गुणस्थान से ऊपर उठ जाता है।
दूसरा गुणस्थान “सासादन सम्यग्दृष्टि ” होता है-
सासादना अर्थात् आसादना से,
विराधना से सहित।
यह सम्यग्दर्शन के काल में ही होता है।
इसमें अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय में
सम्यग्दर्शन नहीं होता,
उसकी विराधना होती है।
यहाँ मिथ्यात्व का कुछ काम नहीं,
केवल अनन्तानुबन्धी आदि कषायों के निमित्त से होने वाला बन्ध होता है।
मिथ्यात्व के बाद अविरति प्रत्यय आता है
अविरति तीन रूप में होती है-
क्रमश: अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायों से उत्पन्न होने वाली अविरति।
दूसरे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी-कषाय जनित अविरति होती है।
इसके साथ पच्चीस प्रकृतियों का अविनाभावी सम्बन्ध है।
इनका आस्रव दूसरे गुणस्थान तक ही होता है।
तीसरे गुणस्थान में किसी भी प्रकृति का बन्ध नहीं रुकता।
चौथे गुणस्थान के अंत में अप्रत्याख्यान-कषाय जनित अविरति
और इसके साथ अविनाभावी सम्बन्ध रखने वाली दस प्रकृतियों की
बन्ध व्युच्छित्ति होती है।
पाँचवें गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण-कषाय जनित अविरति होने से
इसके अंत में प्रत्याख्यानावरण कषायों की बन्ध-व्युच्छित्ति होती है।
छठवें गुणस्थान में संज्वलन कषाय का उदय होता है
इसके अंत में छह प्रकृतियों की बन्ध-व्युच्छित्ति होती है।
देवायु की बन्ध-व्युच्छित्ति सातवें गुणस्थान से ऊपर उठने पर होती है।
अष्टम गुणस्थान के अंत में छत्तीस प्रकृतियों की बन्ध-व्युच्छित्ति होती है।
संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ और पुरुषवेद की बन्ध-व्युच्छित्ति नौवें गुणस्थान के अंत में होगी।
दसवें गुणस्थान - “सूक्ष्मसाम्पराय” से ऊपर उठने पर
ज्ञानावरण 5, दर्शनावरण 4, अन्तराय 5, उच्च गोत्र और अयशःकीर्ति कुल सोलह प्रकृतियों की बन्ध-व्युच्छित्ति होती है।
ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक केवल योग से आस्रव होता है
योगों का संवर तेरहवें गुणस्थान से ऊपर उठने पर होगा।
इस प्रकार पाँचों प्रत्ययों से होने वाले कर्मों का पूर्ण संवर चौदहवें गुणस्थान में जाकर होगा।
यह कर्म-स्वरूप, बन्ध-व्युच्छित्तियाँ, संवर इत्यादि
सर्वज्ञ के सूक्ष्म ज्ञान,
प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय है,
हमें तो संवर के लिए किया जाने वाला पुरुषार्थ देखना है,
जो हमने सूत्र दो स गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषहजयचारित्रै: से जाना।
स: अर्थात् वह संवर
‘चारित्रै:’ तृतीया बहुवचन विभक्ति में,
करण कारक के रूप में है।
करण अर्थात् instrumental cause
जिससे कोई कार्य किया जाए,
जैसे कपड़ा काटने के लिए कैंची।
संवर के छह कारण हैं-
गुप्ति,
समिति,
धर्म,
अनुप्रेक्षा,
परिषह-जय और
चारित्र
गुप्ति यानि
गोपन करना,
आत्मा की रक्षा करना,
एक रक्षा करने वाला यंत्र।
आत्मा की कर्मों से रक्षा करने के लिए
मन, वचन, काय को रोकना गुप्ति कहा जाता है।
ये तीनों - मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति
आत्मा में सर्वाधिक संवर और निर्जरा कराती हैं।
ये तीनों - व्यवहार और निश्चय रूप होती हैं।
व्यवहार-रूप गुप्ति
देखने में आती हैं,
महसूस होती हैं।
निश्चय-रुप गुप्ति ध्यानात्मक होती हैं।
व्यवहार मनोगुप्ति में मन को
बाहरी चिन्ताओं,
आर्तध्यान,
रौद्रध्यान, और
कलुषताओं से,
बाहर से रोका जाता है।
निश्चय-रूप मनोगुप्ति में मन
बाहर की चिंताओं को छोड़कर
अपने शुद्ध आत्मस्वरूप में लीन होता है।