श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 16
सूत्र - 09
सूत्र - 09
आक्रोश परीषह। वध परीषह। याचना परीषह। अलाभ परीषह। रोग परीषह। तृण स्पर्श परीषह। मल परीषह। सत्कार पुरस्कार परीषह। प्रज्ञा परीषह। अज्ञान परीषह। अदर्शन परीषह।
क्षुत्पिपासा-शीतोष्ण-दंश-मशक-नाग्न्यारति-स्त्री-चर्या-निषद्या-शय्या-क्रोध-वध-याचना-लाभ-रोग-तृणस्पर्श-मल-सत्कार-पुरस्कार - प्रज्ञाज्ञाना-दर्शनानि॥9.9॥
23, oct 2024
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नहीं नहाने के कारण होने वाली बेचैनी, खुजली आदि का परिषह निम्न में से कौनसा होता है?
प्रज्ञा परिषह
अरति परिषह
मल परिषह*
रोग परिषह
परीषहों के प्रकरण में हमने जाना
बारहवाँ आक्रोश परीषह
अरति और स्त्री परीषह की तरह मानसिक परीषह है।
कोई हमें बुरा-भला कहे,
गालियाँ दे,
व्यंग्य कसे,
कुल-धर्म की निंदा कर उकसाए
तो भी उसके ऊपर आक्रोशित नहीं होना
आक्रोश परीषह सहना है।
आक्रोश बढ़ता हुआ वध तक भी पहुँच सकता है।
कोई हमारे ऊपर कुछ फेंक भी सकता है।
आज भी ये परीषह होते हैं।
मुनि श्री ने महावीर स्वामी की जन्मस्थली कुण्डग्राम से लौटते हुए
इन परीषहों को सहा था।
जब एक व्यक्ति ने कटारी निकाल ली
और गालियाँ बकते हुए
वार करने का इंतजार कर रहा था।
मृत्यु से साक्षात्कार करने का भाव बनाकर,
मुनि श्री उसके सामने से गुजरे
पर वह आक्रोश परीषह तक ही रहा
वध तक नहीं पहुँचा।
चौदहवें याचना परीषह में साधु
जरुरत होने पर भी
किसी से कुछ माँगते नहीं,
वे अपना स्वाभिमान बनाए रखते हैं।
याचना से अहंकार दूर होता है
ऐसा मानकर अन्य सम्प्रदाय के लोग
इसे परीषह नहीं मानते।
किन्तु न माँगने पर
होने वाला, कष्ट सहना परीषह है।
मांगने की आदत पड़ जाने से
परीषह नहीं रहता।
आहार के लिए मन बनाकर निकलने पर
मरे हुए जीव-जंतु आदि दिख जाने से,
अन्तराय आने से,
अलाभ परीषह हो जाता है
यानि आहार नहीं मिलता।
मुनि इसे कर्म निर्जरा के मौकेरूप
लाभ मानते हैं।
हमारा शरीर वात-पित्त-कफ से बना है।
इन प्रकृतियों में विकृति आने से
रोग हो जाने पर,
मुनि रोग का प्रतिकार नहीं करते,
इलाज कराने के लिए हाय-तौबा नहीं करते।
वे शान्त भाव से,
धर्म-ध्यान करते हुए
रोग परीषह सहते हैं।
यदि लाइलाज रोग हो जाए
और शरीर क्षीण होने लगे
तो वे यद्वा-तद्वा प्रवृत्ति से
उसे दूर करने की कोशिश नहीं करते।
अपितु समाधी धारण कर लेते हैं।
तृण स्पर्श यानि चुभने वाली चीजें-
जैसे कंकड़, पत्थर, कांटे आदि।
चलने-बैठने में
इनकी चुभन को समता से सहना
तृण स्पर्श परीषह होता है।
मुनि के न नहाने से
शरीर में मैल लग जाता है
उसकी खुजली आदि बेचैनी सहना
मल परीषह होता है।
उन्नीसवाँ सत्कार-पुरस्कार परीषह मानसिक परीषह है
यानि किसी भी काम में आगे-आगे होना।
यदि कभी कोई आगे नहीं करता,
नाम नहीं लेता,
या अपने सामने, अन्य की प्रशंसा करता है,
तो भी मुनि क्लेश नहीं करते।
आत्म-प्रशंसा सबको अच्छी लगती है,
किन्तु पर-प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होने से
इसे जीता जाता है।
इसके बिना मानसिक सन्ताप बना रहता है।
ज्ञान अधिक होने से
होने वाली प्रशंसा को
समभाव से सहन करना,
प्रज्ञा परीषह होता है।
मुनि प्रशंसा में प्रसन्न नहीं होते,
वे यह नहीं सोचते कि
हम बहुत ज्ञानी हैं
या हमारी और प्रशंसा हो।
वे शान्त रहते हैं।
ज्ञानावरण का क्षयोपशम कम होने से मुनि को
चीजें याद न होती हों,
कुछ समझा न पाते हों,
तो लोग चारित्र नहीं देखते।
वे कह देते हैं कि
इन्हें कुछ आता-जाता नहीं
और मुनि बन गए हैं।
जैसे मुनि श्री के बचपन में एक मुनि के साथ हुआ
जो जप आदि में लगे रहते थे,
पर प्रवचन करना नहीं आता था
तो लोग उनकी सेवा करने भी नहीं आते थे,
यह सहना अज्ञान परीषह है
दीक्षा के सालों बाद भी
तपस्या, सामायिक-ध्यान करते हुए
ॠद्धि, अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान आदि कुछ अतिशय नहीं हो रहे
यह भाव आना - अन्तिम अदर्शन परीषह होता है।
साधु चमत्कार नहीं देखते
वे अपने रत्नत्रय से सन्तुष्ट रहते हैं।
जैसे चोट लगने पर हम-
आँख बंदकर अपने में आ जाते हैं,
वैसे ही ये परीषह आत्मा से निकटता बढ़ाते हैं
और निर्जरा कराकर
आत्म शुद्धि करते हैं।
श्रावक भी अपनी शक्ति और उत्साह अनुसार
इन्हें सहन करने की भावना कर सकते हैं।