श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 63
सूत्र -47
सूत्र -47
भावलिंग का अर्थ। पाँच प्रकार के संयम भाव। कषाय कुशील में संयम के भेद। संयम में वृद्धि होने से title भी बदल जाता है। श्रुतज्ञान की अपेक्षा। पूर्वविद् होने से देवों द्वारा पूजा के योग्य। भिन्न दसपूर्वी और अभिन्न दसपूर्वी। दस पूर्व तक के उत्कृष्ट ज्ञान के धारी। कषाय कुशील और निर्ग्रन्थ में श्रुत ज्ञान। मुनियों में जघन्य श्रुतज्ञान।
संयम-श्रुतप्रतिसेवना-तीर्थलिंङ्ग-लेश्योपपाद-स्थान-विकल्पतः साध्या:॥9.47॥
19, Feb 2025
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प्रतिसेवना कुशील के निम्न में से कौनसा संयम होगा?
छेदोपस्थापना*
परिहारविशुद्धि
सूक्ष्म साम्पराय
यथाख्यात
निर्ग्रन्थों के प्रकार में हमने जाना
भावलिंग का मतलब होता है
बाह्य आरम्भ-परिग्रह से पूर्ण विरक्ति होना,
अन्तरंग से छठवाँ-सातवाँ गुणस्थान रहना और
केवल संज्वलन कषाय-मात्र का उदय रहना।
इन्हें ही निर्ग्रन्थ कहते हैं।
धर्म प्रभावना, संघ आदि के कारण
उनमें पुलाक, बकुश, कुशील आदि रूप भेद बन जाते हैं।
यदि सम्यग्दर्शन बना भी रहे पर गुणस्थान गिर जाए
तो वे निर्ग्रन्थ और भावलिंगी नहीं कहलाते।
सूत्र सैंतालीस संयम-श्रुतप्रतिसेवना-तीर्थलिंङ्ग-लेश्योपपाद-स्थान-विकल्पतः साध्या: में हमने जाना-
संयम,
श्रुत,
प्रतिसेवना,
तीर्थ,
लिंग,
लेश्या,
उपपाद और
संयम के स्थानों की अपेक्षा - निर्गंथों के इन भेदों में विशेषताएँ यानि अन्तर आता है।
सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात
यह पाँच प्रकार का चारित्र ही संयम कहलाता है।
पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना कुशील- इन तीनों के दो ही संयम रहते हैं-
सामायिक और छेदोपस्थापना।
इन संयम से इनका छठवाँ-सातवाँ गुणस्थान निरन्तर बना रहता है।
कषाय कुशील के पास पहले दो के साथ
परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्पराय संयम भी हो सकते हैं।
यानी ये सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में राग की मन्दता से सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र का भी संवेदन करते हैं।
इस प्रकार इनके चार संयम होते हैं।
ये कषाय कुशील छठवें से दसवें गुणस्थान तक होते हैं।
ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान वाले निर्ग्रन्थ,
और तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान वाले स्नातक
यथाख्यात संयम वाले होते हैं।
ये पुलाक आदि title हमेशा ऐसे ही रहें - ऐसा अभिशाप नहीं होता।
ये बदलते भी हैं।
जब साधु के संयम की वृद्धि होगी तो ये title छूट जाएँगे।
जब जीव के भाव बदलेंगे
और वह श्रेणी चढ़ेगा,
शुक्ल ध्यान करेगा,
उसका गुणस्थान बढ़ेगा
तब वह पुलाक आदि से छूटकर कषाय कुशील भी बनेगा।
दूसरे विशेषण श्रुत का मतलब - द्रव्य श्रुतज्ञान और भाव श्रुतज्ञान होता है-
बाहरी अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य नाम का श्रुत, द्रव्य श्रुत कहलाता है।
जो बारह अंग और चौदह पूर्व के रूप में कहा जाता है।
इसे जानने पर हमारे अन्दर उत्पन्न भाव,
या इसे जानने की शक्ति
भावश्रुत कहलाती है।
पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना कुशील उत्कृष्ट रूप से दस पूर्व तक के ज्ञाता हो सकते हैं।
यह बहुत बड़ी बात होती है।
क्योंकि पूर्वविद् होने से ये शुक्ल ध्यान के अधिकारी होते हैं।
दस पूर्वधारी की देवता पूजा करते हैं,
देवों द्वारा पूजा जाना उनकी ॠद्धि होती है।
ये अभिन्न दशपूर्वी होते हैं।
दसवें पूर्व का अध्ययन करने पर
अनेक तरीके की 700 और 500 विद्याएँ सामने आकर खड़ी हो जाती हैं।
और नमोस्तु करती हैं,
आज्ञा माँगती हैं।
जो मोह भाव से उन्हें आज्ञा देकर उन्हें स्वीकार कर लें,
वे भिन्न-दसपूर्वी होते हैं।
यह मोह उनके श्रुत को आगे नहीं बढ़ने देता।
जब वे निर्मोही रहकर उन पर ध्यान नहीं देते
तो अभिन्न दसपूर्वी होते हैं।
देव उनकी विशेष पूजा करते हैं।
हम इन्हें मोही मानकर मन ख़राब न करें।
शास्त्रानुसार संघ का प्रवर्तन, वैयावृत्ति आदि काम करने ही होते हैं
जो बिना राग और मोह के नहीं होते।
यह राग इन्हें बकुश तो बनाता है
पर ये दसपूर्व तक के ज्ञाता हो सकते हैं।
कषाय कुशील और निर्ग्रन्थ
उत्कृष्ट रूप से चौदह पूर्व तक के धारी हो सकते हैं।
यानी ये पूरे श्रुतकेवली हो सकते हैं।
और स्नातक तो केवलज्ञानी होते हैं
इसलिए इन्हें श्रुतज्ञान की जरूरत ही नहीं रहती।
जघन्य श्रुतज्ञान की अपेक्षा-
पुलाक में आचार वस्तु मात्र तक का ज्ञान होता है।
जो नौवें पूर्व का तीसरा अधिकार है।
यानी जघन्य भी इनका ज्ञान नौवें पूर्व को छूता है।
बकुश, कुशील और निर्ग्रंथो में भी अष्ट प्रवचन-मातृका तक का जघन्य ज्ञान होता है।