श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 20
सूत्र - 16,17
सूत्र - 16,17
thyroid जैसी बीमारी से आत्मप्रदेशों का संकुचन विस्तार समझ सकते हैं। धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य किस प्रकार उपकार करते है ? रोटी बनाने में कौन-कौन उपकारी। धर्म और अधर्म द्रव्य का योगदान। धर्म और अधर्म द्रव्य पर श्रद्धान करना चाहिए। हमें सिद्धांत को मानना चाहिए।
प्रदेशसंहार- विसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥5.16॥
गति-स्थित्युपग्रहौ धर्मा-धर्मयो-रूपकारः॥5.17॥
Madhu Jain
Shahdara
WINNER-1
Jayashree Sudhir Dhokar
Mumbai
WINNER-2
Sunita Jain
Delhi
WINNER-3
धर्म द्रव्य गति के लिए कैसा निमित्त है?
प्रोत्साहक निमित्त
प्रेरक निमित्त
उदासीन निमित्त*
मूर्त निमित्त
सूत्र सोलह प्रदेशसंहार- विसर्पाभ्यां प्रदीपवत् में आचार्य उमास्वामी महाराज बताते हैं
कि जीव द्रव्य के प्रदेशों का भी संकोच और विस्तार होता है
लेकिन यह संकोच-विस्तार जीव खुद अपने में feel नहीं करता
वह दूसरों के बड़े, मोटे, पतले शरीर को देखता है
गर्भ में आत्मा के प्रदेश एक छोटे से ढेला के आकार में होते हैं
फिर वह बालक और युवा बनते हैं
और उसकी health और height बढ़ती जाती है
शरीर के साथ उसकी आत्मा के प्रदेशों का भी विस्तार होता है
लेकिन देह दृष्टि वाले जीवों को देह का ही ज्ञान होता है
मुनिश्री ने दो तरह की thyroid की बीमारी का उदाहरण देकर आत्मप्रदेशों का संकुचन- विस्तार समझाया
पहली बीमारी में शरीर सूखता जाता है
यानि आत्मा के प्रदेश संकोच करते हैं
और दूसरे में शरीर फैलता जाता है
यानी आत्म प्रदेश विस्तार करते हैं
अपने शरीर में संकोच-विस्तार आसानी से समझ आता है
दीपक के प्रकाश की तरह आत्मा के प्रदेशों का फैलाव और संकुचन होता रहता है
और यह प्रत्यक्ष प्रमाण से भी सिद्ध होता है
सूत्र सत्रह “गति-स्थित्युपग्रहौ धर्मा-धर्मयो-रूपकारः” में हमने जाना की धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थिति में उपग्रह करते हैं
‘उपग्रह्यते इति उपग्रहः’ में उपग्रह को ही उपकार कहते हैं
सूत्र में द्विवचन का उपयोग इनके उपकार को अलग-अलग बताने के लिए किया है
यानि जीव और पुद्गल की गति में धर्म द्रव्य उपकार करता है
और स्थिति में अधर्म द्रव्य उपकार करता है
प्रश्न है कि जब जीव और पुद्गल अपने ही निमित्त या स्वशक्ति से गति करते हैं तो इसमें धर्म और अधर्म का क्या उपकार है ?
मुनिश्री समझाते हैं कि कोई भी कार्य घटित होने के पीछे एक नहीं, अनेक कारण होते हैं
उसमें कुछ कारण सामान्य और कुछ विशेष होते हैं
जैसे रोटी बनाने में आटा, पानी, अग्नि, बर्तन, आदि चीजों के साथ-साथ वायु, आकाश और दिमाग भी लगता है
किन्तु हमारा ध्यान हवा, वातावरण और आकाश आदि सामान्य कारणों पर नहीं जाता
हम केवल विशेष कारणों को ही देखते हैं
जैसे चलने-बैठने में धरती सहायक है पर हम केवल अपने हाथ-पांव आदि पर ध्यान देते हैं
धर्म और अधर्म द्रव्य अदृश्य और अमूर्तिक होने से हम इनका योगदान नहीं समझ पाते हैं
गति में धर्म और रुकने में अधर्म द्रव्य उदासीन निमित्त होते हैं
ये हमे चलने और रुकने के लिए प्रेरणा नहीं देते
हमने जाना कि निमित्त दो प्रकार के होते हैं
प्रेरक निमित्त - जो किसी कार्य को करने की प्रेरणा देते हैं
जैसे गुरु महाराज व्रत, नियम, संयम आदि की प्रेरणा देते हैं
और उदासीन निमित्त - जो शांत रह कर केवल सहायक बनते हैं
इनके माध्यम से कार्य तो होता है लेकिन ये बिल्कुल neutral रहते हैं
इन्हें आप अपनी प्रवृत्ति बनाकर use कर सकते हो
चाहे आप इन्हें use करें या misuse, इन्हें कोई आपत्ति नहीं है
Modern Science भी मानता है कि
Ether नामक पदार्थ गति और स्थिति करने में मदद करता है
हमें धर्म-अधर्म द्रव्यों के सिद्धांतों पर श्रद्धान भी करना चाहिए
और ऐसी language बोलना चाहिए कि इसका प्रचार भी हो
जैसे किसी के पूछने पर चलने के कारण में धर्म द्रव्य भी बताना चाहिए
और बैठने के कारण में अधर्म द्रव्य
छह द्रव्यों पर श्रद्धान करना भी सम्यग्दर्शन कहा गया है
हमें इनका गुणगान, इनकी बातचीत और आदर भी करना चाहिए
हमें support कर रहे, इन अदृश्य कारणों का श्रद्धान हमारे सम्यग्दर्शन का कारण बनेगा
सम्यग्दर्शन के प्रति हमें इतना गर्व आना चाहिए कि हम किसी को बताने में संकोच नहीं करें