श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 39
सूत्र -25
सूत्र -25
जीव की नई आयु का बन्ध पहले ही हो चुका होता है l जीव एक क्षण के लिए भी आयु कर्म के उदय से रहित नहीं होता l जन्म और मृत्यु के बीच के समय में भी आयु कर्म की गिनती होती है l समय की गिनती आगम के अनुसार l विग्रहगति का संक्षिप्त वर्णन l विग्रहगति के दो अर्थ हैं l नोकर्म वर्गणा और कर्म वर्गणा में अन्तर l विग्रहगति में आत्मा के साथ औदारिक शरीर नहीं होता l जीव विग्रहगति में केवल कर्मों को ग्रहण करता है l तीन प्रकार के योग l विग्रहगति में कौन-सा योग होता है? विग्रहगति में कर्म बन्ध कैसे? विग्रहगति में कितने प्राण होते हैं?
विग्रहगतौ कर्मयोग:।l२५।l
Pinki
Kotputali
WIINNER- 1
Shashi Bala Jain
Deoband
WINNER-2
Sau lata Bhusari
Yavatmal
WINNER-3
विग्रह गति में होने वाले योग को क्या कहा जाएगा?
मनोयोग
वचन योग
कर्म योग *
औदारिक काय योग
हमने जाना कि जीव एक समय के लिए भी आयु कर्म के उदय से रहित नहीं होता
एक आयु का उदय पूरा होता है, उसी समय पर ही दूसरी आयु का उदय शुरू हो जाता है
गर्भ में आने से पहले और मरण होने के बीच का समय भी आयु कर्म में ही count होता है
जैन सिद्धान्त में एक-एक समय की counting है
सर्वज्ञ के बिना कोई भी इन सब बातों को बताने में सक्षम नहीं हो सकता
सूत्र 25 में हमने विग्रहगति को समझा
विग्रह का अर्थ है - शरीर
और गति का अर्थ है - गमन
अतः जो गति विग्रह अर्थात शरीर के लिए हो रही है उसे विग्रहगति कहते हैं
यह आत्मा के एक भव से दूसरे भव में जाने के बीच की गति है
विग्रह का एक और अर्थ है - 'वि' यानि विरुद्ध और 'ग्रह' मतलब ग्रहण करना
अर्थात ग्रहण नहीं करना
अतः जिस गति में शरीर के योग्य नोकर्म पुद्गल वर्गणाओं को ग्रहण न करें उसे विग्रहगति कहते हैं
कर्म वर्गणा से आत्मा में कर्मों का बन्ध होता है
आहार आदि, हवा पानी के माध्यम से शरीर की जो पर्याप्तियाँ बनी हुई है, श्वासोच्छवास आदि के माध्यम से जो हम शरीर के अन्दर पुद्गल वर्गणाओं को करते हैं उन्हें नोकर्म पुद्गल वर्गणा कहते हैं
विग्रहगति में आत्मा के साथ तैजस और कार्मण शरीर होते हैं, औदारिक शरीर नहीं
अतः इस समय पर औदारिक या वैक्रियिक शरीर के योग्य वर्गणाएँ ग्रहण नहीं होती
हमने जाना कि आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्दन को योग कहते हैं
योग तीन प्रकार के होते हैं
मन या मनोवर्गणाओं के निमित्त से मनोयोग
वचन वर्गणाओं के निमित्त से वचनयोग और
नोकर्म औदारिक आदि शरीर के निमित्त से काययोग
विग्रहगति में कर्म के माध्यम से आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्दन होता है इसे कर्म योग या कार्मण काय योग कहते हैं
कार्मण काय योग के माध्यम से कर्म का बन्ध, उदय, क्षयोपशम आदि सब बने रहते हैं
विग्रहगति में तीन प्राण - श्वाच्छोश्वास, मन बल और वचन बल नहीं होते
अतः संज्ञी पंचेन्द्रिय के विग्रहगति में दस के स्थान पर सात प्राण होंगे
यहाँ इन्द्रियाँ अभी बनी नहीं हैं लेकिन उनका क्षयोपशम होना से उन्हें यहाँ प्राण स्वीकारा है