श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 04
सूत्र - 03,04
सूत्र - 03,04
नारकियों के शरीर के स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण भी अशुभ-अशुभ ही होते हैं। नारकियों की द्रव्य-लेश्या । नारकियों में भाव-लेश्या में एक सीमा में परिवर्तन होता रहता है । प्रत्येक कषाय और लेश्या में असंख्यात-लोक प्रमाण भेद स्थान होते हैं । नारकियों की देह, संस्थान और वाणी भी अशुभ ही है । नारकियों का वैक्रियक शरीर अत्यन्त दुर्गन्धित, घिनावनी सप्त धातुएँ सहित होता है । नारकियों के शरीरों में अनगिनत रोग होते हैं । अनगिनत रोग होने पर भी नारकी आयु पूर्ण होने के पूर्व मरण को प्राप्त नहीं होता है । नीचे-नीचे नरकों में वेदना अधिक-अधिक है । नारकियों की विक्रिया भी अशुभ और अपृथक ही होती हैं । सातवें-नरक के नारकियों की विक्रिया सबसे अशुभ होती हैं । देवों और मनुष्यों में पृथक एवं अपृथक दोनों विक्रिया हो सकती है । देवों में पृथक विक्रिया किन स्वर्गों तक होती हैं ? एकत्व विक्रिया, प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार की होती है । प्रशस्त अपृथक विक्रिया देवों में होती है । अप्रशस्त अपृथक विक्रिया तिर्यंचों और नारकियों में होती है । नारकियों में तीव्र असाता-वेदनीयकर्म का उदय होता है । जितना हम दूसरे को देते हैं, उससे भी ज्यादा हमें भी मिलता रहता है । नारकी अपने ज्ञान का दुरुपयोग ही करते रहते हैं ।
नारका नित्याशुभतरलेश्या-परिणाम-देह-वेदना-विक्रिया:ll३ll
नारकी जीव परस्पर में एक-दूसरे के दुःख को उकसाते हैं परस्परोदीरित दुःखाः॥4॥
Rita jain
Mathura
WIINNER- 1
सविता जैन
बरेली जिला रायसेन मध्य प्रदेश
WINNER-2
Rajani badnrerkar
Murtizapur
WINNER-3
नारकियों के कौनसा संस्थान रहता है?
स्वाति संस्थान
कुब्जक संस्थान
वामन संस्थान
हुण्डक संस्थान*
सूत्र 3 में हम नारकियों की विशेषताओं को जान रहे हैं
इनकी लेश्या अशुभतर होती है
इनके परिणाम यानि शरीर के स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण भी अशुभ-अशुभ ही होते हैं
नारकियों की द्रव्य-लेश्या उनके शरीर के रंग के अनुसार होती है
इनकी भाव-लेश्या जीवन पर्यन्त तक अशुभ ही रहती है
लेकिन उसमें भी अन्तर-अन्तर्मुहूर्त में परिवर्तन, कषायों के अनुसार, होता रहता है
क्योंकि इन लेश्याओं के असंख्यात-लोक-प्रमाण भेद, कषायों के भेद के अनुसार होते हैं
पहले से सातवें नरक में वेदना अधिक-अधिक और शरीर भी अशुभतर होते जाते हैं
इनकी देह, संस्थान, रंग और वाणी अशुभ ही होते हैं
शरीर में रुक्ष और कठोर स्पर्श उत्पन्न होता है
वाणी बहुत कर्कश, कठोर और मर्मभेदी होती है
रस आदि भी तीखे और दुःख देने वाले होते हैं
इनका संस्थान हुण्डक ही होता है
इनका वैक्रियिक शरीर अशुभ रूप, अत्यन्त दुर्गन्धित, घिनावनी सप्त धातुएँ सहित होता है
क्योंकि इसी देह के आधार से इन्हें कष्ट होता है
नारकियों के शरीरों में अनगिनत, अंग-अंग में रोग होते हैं
सप्तधातुओं के सबसे ज्यादा अशुभ परिणमन यहीं देखने को मिलते हैं
नारकी रोगी होता है, दुखी होता है
मगर आयु पूर्ण होने के पूर्व मरण को प्राप्त नहीं होता
हमने जाना कि विक्रिया शक्ति दो प्रकार जी होती है - पृथक और अपृथक या एकत्व
देवों और मनुष्यों में दोनों विक्रियायें हो सकती हैं
ग्रैवेयक से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवों के प्रशस्त रूप एकत्व विक्रिया होती है
तिर्यन्चों और नरकों में केवल अप्रशस्त अपृथक विक्रिया होती है
छटवें नरक तक नारकी अपनी अशुभ एकत्व विक्रिया से अनेक प्रकार के आयुध जैसे अस्त्र-शस्त्र, भाला, तोमर, चाकू, बंदूकें आदि बना लेते हैं
सातवें-नरक में वे इन्हें भी नहीं बना सकते
वे गाय आदि जीवों के रूप में विक्रिया करते हैं
अशुभ एकत्व विक्रिया इनको बहुत सुख देने वाली नहीं होती
ये शुभ करने की इच्छा भी करेंगे तो भी भवप्रत्यय के कारण अशुभ ही कर पाएंगे
नारकियों के अन्दर की अशुभता तीव्र असाता-वेदनीयकर्म का उदय के कारण से होती है
कर्म के कारण ही हमेशा इनका दुःख रूप, क्लेश रूप, संक्लेश रूप परिणाम बना रहेगा
सूत्र 4 में हमने जाना कि नारकी जीव परस्पर में एक-दूसरे के दुःख को उकसाते हैं
अपने विभंगज्ञान (यानि मिथ्या अवधिज्ञान) के कारण वे एक-दूसरे को आपस में लड़ते हुए-लड़ाते हुए खुश रहने की चेष्टा करते हैं
लेकिन कोई इन्हें खुश रहने नहीं देता