श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 01
सूत्र - 01
सूत्र - 01
बन्ध का स्वरूप और कारण। बन्ध का पहला हेतु मिथ्यादर्शन। भव्य जीव मिथ्यादर्शन को तोड़ेगा तभी मोक्ष का मार्ग बनता है। अगृहीत मिथ्यात्व। गृहीत मिथ्यात्व पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याय में ही प्रकट होता है। मनुष्य पर्याय में ३६३ मतों के माध्यम से इस मिथ्यात्व का फैलाव। एकान्त मिथ्यात्व। नियतिवाद भी एक एकान्त है।
मिथ्या-दर्शना-विरति-प्रमाद-कषाय-योगाबन्ध-हेतव:॥8.1॥
26th, March 2024
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बंध का पहला हेतु क्या है?
मिथ्यादर्शन*
अविरति
प्रमाद
कषाय
पिछले अध्यायों में हमने जीव, अजीव, आस्रव, संवर तत्त्वों को जाना
सप्तम अध्याय में पुण्य आस्रव के मुख्य कारणों को जाना
अष्टम अध्याय में हम बन्ध तत्त्व को जानेंगे
इसे कर्म बंध विज्ञान कहते हैं
क्योंकि कारण पूर्वक ही कार्य होता है
इसलिए आचार्य ने बंध से पहले
सूत्र एक मिथ्या-दर्शना-विरति-प्रमाद-कषाय-योगाबन्ध-हेतव: में इसके पाँच हेतु अर्थात् कारण बताये हैं
अध्यात्म ग्रंथों में आचार्यों ने बंध के कारण अलग-अलग बताये हैं; जैसे
राग, द्वेष और मोह तीन कारण या
समयसार आदि ग्रंथों में मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग चार कारण बताये हैं
सूत्र में बताये पाँच हेतु क्रमशः मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं
ये क्रम से ही छूटते हैं
जैसे मिथ्यादर्शन के बाद ही अविरति दशा छूटेगी
और उसके बाद प्रमाद दशा आदि
इन हेतुओं के छूटने से जीव के गुणस्थानों की वृद्धि होती है
गुणस्थान में आरोहण होने से जीव की विशुद्धि बढ़ती है
और बन्ध के प्रत्यय छूटते चले जाते हैं
हमने जाना कि बंध का मुख्य और पहला हेतु मिथ्यादर्शन है
इसके छूटने से अन्य हेतु भी धीमे-धीमे छूटते जाते हैं
यहाँ दर्शन मतलब श्रद्धा, आस्था, विश्वास है
अतः मिथ्यादर्शन मतलब मिथ्या श्रद्धान
इसके छूटने से ही भव्य जीवों में मोक्षमार्ग के बनने का परिवर्तन शुरू होता है
जिनमें यह संभावना नहीं होती
उनके बंध के हेतु हमेशा रहते हैं
और वे अभव्य होते हैं
एकेन्द्रिय आदि सभी जीवों में विद्यमान इस भाव के कारण
जीव की श्रद्धा हमेशा उल्टी बनी रहती है
इसके दो भेद हैं - नैसर्गिक और अधिगम मिथ्यादर्शन
नैसर्गिक मिथ्यादर्शन को अगृहीत या अनभिगृहीत भी कहते हैं
यह सभी संसाई जीवों में अपने कर्मों के उदय से स्वाभाविक रूप से होने वाला मिथ्यात्व का भाव है
जो मिथ्यात्व कर्म के उदय से अनादि काल से जुड़ा हुआ है
इसे कोई अपनी बुद्धि से नहीं सीखता
इसके कारण से जीव देव-शास्त्र-गुरु के स्वरुप को,
सात तत्त्वों को सही ढंग से नहीं जान पाता
न ही शरीर और आत्मा को भिन्न जान पाता
अधिगम मिथ्यात्व संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को उपदेश के माध्यम से होता है
अन्य जीवों के सिर्फ अगृहीत ही होता है
गृहीत मिथ्यात्व के संस्कार विशेष रूप से मनुष्य पर्याय में ही
पर-उपदेश से पड़ते हैं
तीन सौ त्रेशठ मिथ्यामत इसी में आते हैं
देव, नरक और त्रियंच गति में मिथ्यादृष्टि तो होते हैं
लेकिन उपदेशपूर्वक इन मतों को ग्रहण करने का भाव वहाँ नहीं होता
गृहीत मिथ्यात्व के छूटने पर ही अगृहीत मिथ्यात्व छूटने का कुछ साधन बनता है
ये सभी मत
क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानी और वैनयिक में विभाजित हो जाते हैं
धर्म हमेशा अनेकान्त रूप होता है
एक-एक धर्म को ग्रहण कर मनुष्य ने ये तीन सौ त्रेशठ मिथ्या परिकल्पनायें की हैं
ग्रहीत मिथ्यात्व के एकान्त, विपरीत, संशय, वैनयिक और अज्ञान मिथ्यात्व पाँच भेद होते हैं
एकान्त मिथ्यात्व में वस्तु के केवल एक धर्म को स्वीकार करके
अन्य चीजों का अभाव कर देते हैं
जैसे बहुप्रचलित बौद्ध मत के सिद्धान्त में आत्मा क्षणिक है
एकान्त मतों के प्रवाहित विचित्र सिद्धान्तों में
कोई आत्मा को क्षणिक तो कोई कूटस्थ नित्य मानता है
कोई आत्मा को सिर्फ भोक्ता मानता है, कर्त्ता नहीं
तो कोई कर्त्ता और भोक्ता को अलग-अलग मानता है
कुछ लोग मानते हैं कि
पुरूषार्थ से ही सब कुछ प्राप्त किया जाता है
तो कुछ शास्त्रों के अनुसार भाग्य के बिना कुछ नहीं होता
सिर्फ भाग्य को मानना या फिर सिर्फ पुरुषार्थ को मानना दोनों ही एकान्त मिथ्यात्व हैं
संसार में सब निश्चित है
जैसा होना है वैसा ही होगा
यह नियतिवाद भी एकान्त मिथ्यात्व है
अनेकान्त धर्म का ज्ञान न होने पर
हम एकान्त धर्म को भी स्वीकार कर लेते हैं