श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 11
सूत्र - 07
सूत्र - 07
अनुप्रेक्षा-> बार-बार चिन्तन करना। बारह भावनाओं का महत्व। सबसे पहली भावना- अनित्य भावना। तत्त्व चिन्तन। अनित्यता का चिन्तन कैसे करें? अनित्य भावना के चिन्तन का परिणाम।
अनित्याशरण-संसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रव- संवर-निर्जरा-लोक-बोधिदुर्लभ-धर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तन-मनुप्रेक्षाः॥9.07॥
16, oct 2024
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बहुत अच्छे ढंग से जिनेन्द्र भगवान द्वारा कही हुई- यह
निम्न में से किस शब्द का अर्थ है?
सुक्ष
स्वाख्या*
पराख्या
पृताक्ष
संवर के प्रकरण में आज हमने सूत्र सात : अनित्याशरण-संसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रव-संवर-निर्जरा-लोक- बोधिदुर्लभ-धर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तन-मनुप्रेक्षाः॥9.07॥ में अनुप्रेक्षाओं को जाना
बारह भावनाओं को अनुप्रेक्षा कहते हैं।
अनुप्रेक्षा मतलब मुहुर्-मुहुर्,
बार-बार चिन्तन करना।
जानना तो एक बार में हो जाता है,
याद भी हो जाता है।
पर उसका फल, जानने से नहीं मिलता,
बार-बार चिन्तन करने से मिलता है।
भावना करने पर ही चिन्तन होता है।
बार-बार भावना करने से
वैराग्य दृढ़ होता है
और परिषह सहन हो पाता है।
दस धर्म, बारह भावनाओं को जानते तो हम सभी हैं
पर इन्हें धारण,
इनका बार-बार चिन्तन,
साधु-संत करते हैं।
इनके स्वरुप का ज्ञान हमें ज्ञानार्णव, बारसाणुवेक्खा ग्रन्थों में मिल जाता है।
पर मुनि श्री ने हमें इनका चिन्तन करना सिखाया।
पहली अनित्य भावना का अर्थ है-
यह विचारधारा निरन्तर बनी रहना कि
बाहर जो भी है ,
वह हमारे साथ हमेशा नहीं रहेगा,
वह सब क्षणभंगुर है, अशाश्वत है।
इसके ज्ञान और चिन्तन में अंतर होता है।
जब हमें यह पता है कि
.. राजा राणा छत्रपति...
अब इसमें नया क्या है!
तो, इस कारण हम उसकी भावना नहीं कर पाते।
किन्तु, नयापन ज्ञान में नहीं आता,
तत्त्व चिन्तन से भावों में,
अनुभूति में आता है।
इसलिए भावनाएँ भी तत्त्वानुचिन्तन में आती हैं।
सूत्र के अन्त में स्वाख्यातत्त्वानुचिन्तन-मनुप्रेक्षाः यही भाव बताता है।
स्वाख्या यानि सु-आख्या।
सु अर्थात् अच्छे ढंग से,
आख्या अर्थात् कहा हुआ।
इस स्वाख्यायित तत्त्व का अनुचिन्तन अनुप्रेक्षा है।
केवल
आत्मा का चिन्तन,
आत्मा का ज्ञान,
समयसार आदि ग्रन्थों का,
या द्रव्य गुण पर्याय की सूक्ष्म बातों का चिन्तन और चर्चा को ही
तत्त्व चिन्तन मानना गलत है।
हम अधिक ज्ञान के कारण
इन सूत्रों के शब्दों पर ध्यान नहीं देते,
इन्हें महत्व नहीं देते।
बारह भावनाओं में ही तत्त्व चिन्तन समाया हुआ है।
यही चिन्तन हमारे लिए सबसे बड़ा है।
इनसे मन विशुद्ध होने पर,
इनके प्रति दृढ़ता आने पर ही
आत्मचिन्तन तक पहुँच पाते हैं।
इनके बिना आत्मचिन्तन लाभदायी नहीं होता।
मुनि श्री से
कुछ लोग समयसार पढ़ने के बाद भी
पूछते हैं कि
क्या करें?
आत्म चिन्तन तो दो मिनट में हो जाता है।
सामायिक में घण्टों बैठ कर क्या करते हैं?
यह बताता है कि- जानना अलग बात है
और आत्मसात करना अलग।
सात मतलब उसमें मिल जाना
जैसे भू सात करना यानि नष्ट करना
आत्मसात हो जाने से चिन्तन में
पाँच-पाँच घण्टों का भी पता नहीं चलता!
हमें मात्र ज्ञान की ओर नहीं भागना
क्योंकि उससे आत्मसात नहीं होता।
हमें इस तत्त्व चिन्तन को महत्व देना है-
यह कहना तो सरल है
कि हमें पता है सब क्षणभंगुर है।
हमें इसे चिन्तन में लाना चाहिए-
जो भी चीज़ हमारे साथ हैं,
हमें लगता है ये हमेशा रहेंगी,
उनको हम बार-बार विचारें-
यह अनित्य है!
यह अनित्य है!
यह अनित्य है!
इस तत्त्व-चिन्तन के साथ
आत्मा की भावना को जोड़ने पर
अनित्य भावना का चिन्तन कहलाता है।
इसके फलस्वरूप-
उनसे हमारा लगाव हटता जाएगा,
मोह कम होने लगेगा,
और उनके वियोग में अत्यधिक दुःख नहीं होगा।
आचार्य ऐसे चिन्तक को महाज्ञानी, तत्त्व ज्ञानी कहते हैं।
इस अनित्यता के चिन्तन से
कहीं सच में वह चीज़ हमसे छूट न जाये,
हमारा अमंगल न हो जाए,
इस डर से तत्त्व चिन्तन से डरना नहीं चाहिए,
नहीं तो कभी आत्म-भावना नहीं हो पाएगी।