श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 18
सूत्र -13
Description
संघ का अवर्णवाद।धर्म का अवर्णवाद।देव का अवर्णवाद।भगवान और केवली अलग-अलग हैं, देव अलग हैं।
Sutra
केवलि-श्रुत-संघ-धर्म-देवा-वर्णवादो दर्शनमोहस्य।।1.13।।
Watch Class 18
WINNERS Day 18
29th Aug, 2023
Rekha H JAIN
Greater Noida West
WINNER-1
निशा जैन
नहटौर
WINNER-2
Dharm Vir
Lucknow
WINNER-3
Sawal (Quiz Question)
पंचम काल में श्रमणों का अभाव है।
यह कौनसा अवर्णवाद है?
श्रुत का
संघ का *
धर्म का
देव का
Abhyas (Practice Paper)
Summary
हमने जाना कि तीसरा अवर्णवाद संघ का अवर्णवाद है
इसमें लोग साधु का अपयश करते हैं, अपवाद करते हैं
कहते हैं कि
वे काम-धंधा न मिलने पर साधु बन गए
उन्होंने माता-पिता के प्रति कर्तव्य नहीं निभाया
वे नहाते-धोते नहीं हैं
हाथ से केशलोंच करते हैं
शरीर को पीड़ा देते हैं, दुःखी होते हैं
और दूसरों को भी वही उपदेश देते हैं
बिना सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को जाने
बिना साधु की चर्या समझे
वे साधु की बुराई करते हैं
और दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव करते हैं
कुछ लोग पूरे काल का ही अवर्णवाद कर देते हैं
और दूसरों ले किये मिथ्यात्व का बीज बो देते हैं
जैसे पंचम काल में मुनि नहीं होते
भाव लिंगी नहीं होते
तपस्या, सम्यग्दर्शन, आत्मानुभव, शुद्धोपयोग, संहनन आदि नहीं होते
हमने जाना कि शास्त्रों के अनुसार अहिंसा, रत्नत्रय, जीव दया, आदि सब धर्म हैं
और धर्म और धार्मिक का उपहास करना धर्म का अवर्णवाद है
जैसे रात्रि-भोजन न करने वालों को तर्क देना कि
ये सब तो पुराने जमाने की बातें हैं
जब light नहीं होती थी
अब तो कीड़े भी दिखाई नहीं देते
मेढक-छिपकली कहाँ से भोजन में आएगी
आजकल halogen की light में, समवशरण की तरह ही, दिन-रात का फर्क नहीं होता
धार्मिक लोग अपनी इच्छा की चीजें खाते हैं
और बाकी चीजों में दोष बताते हैं
जैसे आलू जमीन के अंदर है तो उसमें हिंसा होती है
वे अपने आप को बड़ा त्यागी, व्रती मानकर अहंकारी हो जाते हैं
modern science में तो अंडा शाकाहार है
और आलू पेड़ पर उगने लगा है
धार्मिक सिर्फ शास्त्रों में लिखी बातें मानते हैं और कष्ट सहते हैं
जो यहाँ दुःखी है, वह आगे सुखी कैसे हो सकता है?
जब यहाँ कष्ट हो रहा है, तो आगे भी होगा ही
इस तरह धर्म को ताक पर रखकर, उसका उपहास करना धर्म का अवर्णवाद है
पाँचवाँ अवर्णवाद देव का अवर्णवाद है
जैन धर्म के अनुसार देवों के समचतुरस्र संस्थान होता है
वे अमृत आहार करते हैं
पसीना नहीं आता
नींद नहीं आती
मांस मदिरा आदि नहीं खाते
लेकिन भारतीय संस्कृति में लाखों तरीके के देव मिलते हैं
विकृत स्वरूप के भी होते हैं
इन्हें कभी बिना हाथ-मुँह के बना देते हैं तो कभी दस हाथ-मुँह के साथ
मिथ्या बुद्धि वाला इन्हें विकृति नहीं मानता
कम से कम अपने से तो बड़े हैं, बस! ऐसा कहते है
अब तो जैनी भी विकृत स्वरूप वाले देवी देवताओं को मानते हैं
आचार्य इसे देव का अवर्णवाद कहते हैं
जिसका जैसा स्वरूप है, उसको वैसा नहीं मानना
यह मानना कि भगवान तो वही है जो अपनी जैसी मस्ती करे
देव लोग सुरापान करते हैं
मांस खाते हैं मदिरापान करते हैं
बलि चढ़ाने में आनंदित होते हैं
विकृत स्वरूप वाले डरावने होते हैं
हमने जाना कि देव और भगवान अलग-अलग होते हैं
आज के पढ़े-लिखे लोग केवली भगवान और देवों में फर्क नहीं करते
सबको बराबर मानते हैं
यह सब तरह का अवर्णवाद हो गया
मुनि श्री समझाते हैं कि जब बच्चे इस तरह की मिथ्या बातों में उलझते हैं
और हम उनको उत्तर नहीं दे पाते
तो हमने विचारना चाहिए कि
ये उनके अंदर का मिथ्यात्व बोल रहा है
बिना समीचीन ज्ञान के वे उल्टा ही बोलेंगे
जो जन-समुदाय उल्टी बुद्धि में चल रहा है
उसमें उल्टा बोलकर अपनी वाहवाही लूट लेना कोई ज्ञान नहीं होता
आज हमें बच्चों को अच्छे संस्कार देने चाहिए
उनके केवली, देव, श्रुत, धर्म आदि के विषय में misconception दूर करने की कोशिश करनी चाहिए
तभी उनका जैन होना सार्थक होगा
अन्यथा वह मिथ्यादृष्टि ही बने रहेंगे