श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 58
सूत्र -40-44
सूत्र -40-44
आनुपूर्वी के माध्यम से हम एक गति से दूसरी गति में जाते हैं। आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमन होता है। पहले दोनों ध्यान आश्रय को लेकर के होते हैं। दूसरा शुक्लध्यान वीचार से रहित होता है। हमारे अन्दर ध्यान की एकाग्रता लाने के लिए श्रुत की पूजा की जाती है। पहले शुक्लध्यान में तीनों तरह के परिवर्तन सम्भव हैं। अन्त के दो शुक्लध्यानों को उपचार से ध्यान कहा है। अरिहन्तों की औपचारिक रूप की चीजों को सैद्धांतिक रूप से समझने की जरूरत है।
त्र्येक-योग-काय-योगा-योगानाम्॥9.40॥
एकाश्रये सवितर्क-वीचारे पूर्वे॥9.41॥
अवीचारं द्वितीयम्॥9.42॥
वितर्कः श्रुतम्॥9.43॥
वीचारोSर्थव्यञ्जनयोग संक्रांतिः॥9.44॥
07, Feb 2025
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कौनसा शुक्लध्यान वीचार से सहित होता है?
तीसरा
दूसरा
चौथा
पहला*
शुक्ल ध्यान के प्रकरण में हमने जाना
आनुपूर्वी नामकर्म जीव को संसार में
एक गति से दूसरी गति में ले जाता है।
पर सिद्ध गति में जाने के लिए आनुपूर्वी नहीं लगती।
यदि आनुपूर्वी सिद्धगति में लेकर जाने लगे
तो फिर कर्म का उदय आ जाएगा
जबकि सारे कर्म तो यहीं पर नष्ट हो जाते हैं।
जीव यहीं से सिद्ध बनकर
सिद्धशिला पर जाकर स्थित होते हैं।
आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमन होता है
जो उसे एक समय की गति कराकर सिद्धशिला पर ले जाता है।
आत्मप्रदेशों की जैसी रचना यहाँ बन जाती है
वैसी ही अनन्त काल तक रहती है।
सूत्र इकतालीस एकाश्रये सवितर्क-वीचारे पूर्वे में हमने जाना
पहले और दूसरे शुक्ल ध्यानों का आश्रय एक रहता है।
यानि इनमें ध्यान किसी एक द्रव्य पर टिक जाता है
पर उस एक द्रव्य की अनेक पर्यायों, अवान्तर पर्यायों में घूम सकता है।
इन दोनों ध्यानों में वितर्क भी होता है
अर्थात् ज्ञान का
चिन्तन रूप या तर्कणा रूप प्रयोग चलता रहता है
अभी वह बिल्कुल निस्पन्द, नि:शब्द नहीं होता।
नि:शब्द मतलब भीतर से शब्द उत्पन्न ही नहीं होना।
पहले शुक्ल ध्यान में वीचार भी होता है।
यानि उसमें योगों के परिवर्तन होते हैं
सूत्र बियालीस अवीचारं द्वितीयम् के अनुसार
द्वितीय शुक्लध्यान में यह वीचार नहीं होता।
सूत्र तेतालीस वितर्कःश्रुतम् में हमने जाना
वितर्क श्रुतज्ञान को कहते है।
वितर्क अर्थात् विशेष रूप से तर्कणा होना,
मन में किसी चिन्तन की ऊहा पोह चलना।
ध्यान में यही श्रुतज्ञान काम आता है
मति ज्ञान नहीं।
श्रुतज्ञान इतना श्रेष्ठ होता है कि
उसी से शुक्लध्यान भी होता है।
इसलिए श्रुतज्ञान की पूजा की जाती है।
जब हम अपने ज्ञान की पूजा नहीं कर सकते
तो हम द्रव्य श्रुत यानि शास्त्र और जिनवाणी को पूजते हैं
जिनको धारण करने पर आत्मा शुक्ल ध्यान के योग्य बन पाता है।
धर्म्य ध्यान में होने वाला श्रुतज्ञान मोथरा होता है।
वह मोटा-मोटा चिन्तन करता है।
उसमें पैनापन शुक्ल ध्यान में आता है।
शुक्ल ध्यान में पैनेपन की दो quality रहती हैं।
एकत्व वितर्क में वह needle एक जगह टिककर
ज्ञानावरण आदि कर्मों का क्षय कर देती है।
और फिर श्रुतज्ञान का काम पूर्ण हो जाता है।
सूत्र चवालीस वीचारोSर्थव्यञ्जनयोग संक्रांतिः में हमने जाना कि वीचार में
अर्थ परावर्तन
यानि एक ध्येय से दूसरे ध्येय पर चले जाना
व्यञ्जन परावर्तन
यानि एक शब्द से दूसरे शब्द का आलम्बन लेना
और योग परावर्तन
यानि मन-वचन-काय के योगों का बदलना होता है।
इसे ही संक्रान्ति या संक्रमण कहते हैं।
तीसरे शुक्ल ध्यान में तो श्रुतज्ञान यानि वितर्क ही पूरा छूट जाता है।
शब्द, योग किसी का भी परिवर्तन नहीं होता।
केवलज्ञान सामने आने पर
किसी ध्येय की जरूरत नहीं रह जाती।
इसलिए अन्तिम दो शुक्ल ध्यानों को उपचार से ध्यान कहा जाता है।
क्योंकि एकाग्र होकर चिन्तन रोकने रूप
ध्यान की परिभाषा ही उनमें घटित नहीं होती।
एकाग्र करने के लिए वहाँ मन ही नहीं रहता।
कर्म की निर्जरा रूप ध्यान का फल दिखने के कारण
उस पर ध्यान का आरोप किया जाता है।
लेकिन यह निचले गुणस्थानों जैसा ध्यान नहीं होता।
केवली भगवान् ध्यान करने बैठते नहीं,
वे तो हमेशा ध्यान में ही होते हैं।
कषाय नहीं होने के कारण
उनमें शुक्ल लेश्या कहना भी औपचारिक होता है।
क्योंकि जब भावों से कषाय और योग की प्रवृत्ति अनुरञ्जित रहती है
तभी उसे लेश्या कहते हैं।
यहाँ औपचारिक का मतलब बस ऊपर-ऊपर से होना नहीं होता।
यह सब सैद्धान्तिक ही होता है
बस जो मूल परिभाषा संसारी जीवों में घटित होती है,
वैसी उनमें घटित नहीं होने के कारण
उसे औपचारिक कहते हैं।