श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 27
सूत्र - 09
सूत्र - 09
सोलह कषाय। अनंतानुबंधी कषाय। प्रत्याख्यान कषाय। विपाक विचय धर्म ध्यान।
दर्शन-चारित्र-मोहनीया-कषाय-कषायवेदनीयाख्यास्-त्रि-द्वि-नव- षोडशभेदाः सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-तदुभयान्य-कषाय-कषायौ हास्य-रत्यरति-शोक-भय-जुगुप्सा-स्त्री-पुन्नपुंसक-वेदा अनन्तानु-बन्ध्यप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान-संज्वलन-विकल्पाश्चैकश: क्रोध मान-माया-लोभाः॥8.9॥
17th, May 2024
Chitresh Jain
Delhi
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कषाय वेदनीय के कितने भेद होते हैं?
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हमने जाना कि चारित्र मोहनीय कर्म की
अकषाय और कषाय प्रकृतियों के साथ वेदनीय शब्द जोड़ा जाता है
क्योंकि दोनों ही, हास्य आदि अकषाय और क्रोधादि कषाय, वेदना पैदा करती हैं
कषाय वेदनीय चारित्र मोहनीय कर्म के सोलह भेद हैं
अनन्तानुबन्धी- क्रोध, मान, माया, लोभ
अप्रत्याख्यानावरण- क्रोध, मान, माया, लोभ
प्रत्याख्यानावरण- क्रोध, मान, माया, लोभ
और संज्वलन- क्रोध, मान, माया, लोभ
मुनि श्री ने समझाया कि जीव कषाय कर भी रहे हैं
और कषाय जीव को कषायवान बना भी रही है
कषाय के प्रभाव में जीव उसी तरह के भाव करता है
इसकी मन्दता में जीव इन्हें समझ कर जीतने के उपाय कर सकता है
तीव्र कषाय के उदय में, कषायवान जीव, कषाय को कषाय नहीं मानता
कषाय, गोंद की तरह दूसरे पदार्थ को चिपकाता है, बांधता है
हमने इन कषायों के अलग-अलग उदय और फल भी जाने
मिथ्यात्व संसार को अनन्त बनाए रखता है इसलिए अनन्त है
अनन्तानुबन्धी कषाय इस अनन्त को बांधे रखती है
इसके साथ मिथ्यात्व का भी उदय बना रहता है
यह जिसको भी तीव्रता के साथ बांधती है वह अनन्त काल तक बंधा रहता है
अनन्तानुबन्धी कषाय का वेदन करने वाला जीव
सच्चे देव शास्त्र गुरु पर
भगवान द्वारा बताए तत्त्व पर
मार्ग पर
श्रद्धा नहीं करता
विपरीत तत्त्वों में आस्था रखता है
इसी प्रकार जिनके अन्दर जिनेन्द्र भगवान के प्रति, जिनवाणी के प्रति श्रद्धा नहीं होती
उनके अनन्तानुबन्धी कषाय का तीव्र उदय चल रहा होता है
'अ' मतलब थोड़ा
अप्रत्याख्यानावरण कषाय में जीव की श्रद्धा तो सही बनी रहती है
लेकिन उसके अन्दर त्याग करने की,
व्रत संयम लेने की भावना नहीं आती
वह चारित्र धारण नहीं कर पाता
प्रत्याख्यानावरण कषाय जीव को थोड़ा सा त्याग तो करा देती है
लेकिन उसे पूर्ण त्याग के भाव नहीं आते
संज्वलन कषाय में सम् अर्थात् संयम भाव, ज्वलन अर्थात् प्रकाशित होता रहता है
यह संयम भाव के साथ बनी रहती है
यह पंच महाव्रत, अट्ठाईस मूलगुण रूप सकल संयम में बाधा नहीं डालती
पर ग्यारहवें गुणस्थान से होने वाले यथाख्यात चारित्र को नहीं होने देती
अन्य सभी चारित्र और तप की ऋद्धियाँ इसके उदय में भी प्राप्त हो जाती हैं
हम कर्म प्रकृतियों के स्वभाव को समझकर
अपने अन्दर के कर्मों के उदय को महसूस कर सकते हैं
उनकी तीव्रता-मंदता का अनुभव कर सकते हैं
इस तरह हमें अपनी endoscopy कर के अपने भावों का chart बनाना चाहिए
कि हमारे अंदर किन-किन ज्ञानावरणी आदि कर्मों का
कषायों, नोकषायों का,
तीव्र-मन्द उदय चल रहा है?
हमें कौन सी निद्राएँ आती हैं?
कब हम साता और असाता वेदनीय का अनुभव करते हैं? आदि
इस प्रकार अन्तरंग में प्रकृतियों के बारे चिन्तन करने से
परिणामों में आर्त-रौद्र ध्यान नहीं आता
धर्म ध्यान आता है
इस प्रकार कर्म विपाक के चिन्तन को विपाक-विचय धर्म ध्यान कहते हैं
हमने विपाक का वर्णन तो नहीं समझा
लेकिन कर्म प्रकृतियों के स्वभाव को जानने के लिए उनके कार्यों को जाना
हम जिन कषायों में पड़े हुए हैं
उनका उदय रोकने के लिए हमें उसके विपरीत भाव की भावना करनी चाहिए
इससे उस कर्म का उदय अपने आप थमता है
मुनि श्री ने समझाया कि कर्मों के उदय को जानकर, कर्मफल के चिन्तन से
हम स्वयं ही जान सकते हैं कि हमारे साथ कुछ भी क्यों हो रहा है?
हम जान सकते हैं कि कौन से कर्म खराब हैं, अच्छे हैं?
कौन सी चीजें हमें सुख या दुःख देती हैं आदि
इन कर्म प्रकृतियों के स्वभाव को जानना अत्यन्त आवश्यक है
क्योंकि इसके कारण ही संसार के अनन्त जीवों को अलग-अलग फलानुभूति होती है
उन्हें अलग-अलग वातावरण, आयु, सुख-दुःख, श्रद्धा, ज्ञान-दर्शन के क्षयोपशम आदि मिलते हैं