श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 06
सूत्र - 03
सूत्र - 03
द्रव्य का परिणमन परसापेक्ष है पराधीन नहीं। जीव द्रव्य भी परिणमन स्वभाव वाला है। प्रत्येक जीव ब्रह्मा है। जीव द्रव्य में चेतनता consciousness है। जीव द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र है, यह एकांतिक अवधारणा है। दाल के उदाहरण से उपादान और निमित्त की भूमिका को समझा जा सकता है। प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभाव के अनुसार ही परिणमन करता है। सापेक्षता के बिना संसार का अस्तित्व ही संभव नहीं। 'द्रव्याणि' सूत्र bridge की तरह है सूत्र 1 और 3 के बीच में। 'द्रव्य' शब्द की व्युत्पत्ति। द्रव्य जैसा पहले था, वैसा अभी भी है और आगे भी वैसा ही रहेगा। द्रव्य का परिणमन पर वस्तुओं से प्रभावित होता है, आम का उदाहरण। जीव द्रव्य के परिणमन में छहों द्रव्य सहायक है। आज की कक्षा का सार बताते हुए जैन धर्म की वैज्ञानिकता।
जीवाश्च।।3।।
Divya shete
Sangli
WINNER-1
अंजू जैन
दिल्ली
WINNER-2
Urmila jain
Panagar jabalpur mp
WINNER-3
जीव द्रव्य के परिणमन में कितने द्रव्य सहायक है?
एक(1)
चार(4)
पाँच(5)
छह(6)*
सूत्र दो - द्रव्याणि में हमने जाना कि
प्रत्येक द्रव्य की अपनी निजी उपादान शक्ति होती है
वे परिणमनशील होते हैं
लेकिन परिणमन परनिमित्तों के बिना नहीं होता है
जैसे वृक्ष पर लगे फल, बाह्य द्रव्य गर्मी, हवा आदि के बिना नहीं पकते
अतः द्रव्य का परिणमन पर-सापेक्ष है, पराधीन नहीं
सब द्रव्य स्वाधीन भी हैं और पराधीन भी हैं
सूत्र 3 “जीवाश्च” में हमने जीव द्रव्य के बारे में जाना
सूत्र में एकवचन में 'जीवश्च' नहीं आया
क्योंकि जीव बहुत से होते हैं
और अपना अलग-अलग अस्तित्व रखते हैं
यहाँ एकोब्रह्मा वाली बात नहीं है कि बस एक ब्रह्मा ही है
प्रत्येक जीव अपने आप में ब्रह्मा है
हर जीव के अन्दर ब्रह्म अर्थात बढ़ने की शक्ति है
सूत्र में ‘च’ शब्द के अनुसार जीव द्रव्य का स्वभाव अन्य द्रव्यों के स्वभाव के समान ही है
यह भी परिणमन स्वभाव वाला है
शुद्ध द्रव्य का स्वभाव में और अशुद्ध द्रव्य का विभाव में परिणमन होता है
जीव द्रव्य अपनी consciousness quality के कारण अपने परिणमन को संभालने का पुरुषार्थ कर सकता है
वह अशुद्ध को संभाल सकता है
मुनि श्री ने समझाया कि जीव द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र है
उसे किसी निमित्तों की आवश्यकता नहीं है
यह मानना एकांतिक अवधारणा है
शुद्ध होने के लिए और शुद्ध होने के बाद भी उसे परनिमित्तों की आवश्यकता पड़ती है
आचार्य अकलंक देव के अनुसार द्रव्य जब तक किसी भी पदार्थ के साथ में रह रहा है तभी तक वह द्रव्य है
एक-दूसरे की सापेक्षता के बिना तो किसी भी द्रव्य का अस्तित्व ही संभव नहीं है
जैसे बोरे में रखी हुए दाल में पकने की शक्ति होती है
लेकिन बिना अग्नि और पानी के संयोग के वह नहीं पक सकती
इसी प्रकार ठर्रा मोठ पकने की शक्ति नहीं होने के कारण
पानी और अग्नि के संयोग से भी नहीं पकती
जिसमें परिणमन करने की शक्ति है, वही निमित्त के सहयोग से परिणमन करेगा
और जिसमें परिणमन करने की शक्ति नहीं है, उसे निमित्त भी परिणमन नहीं करा सकेंगे
यही अवधारणा समीचीन ज्ञान, जैन धर्म की वैज्ञानिकता और सापेक्षिकता का सिद्धान्त है
सूत्र “द्रव्याणि” के पहले सूत्र एक में अजीवकाय का और बाद में सूत्र तीन में जीवास्तिकाय का वर्णन है
अतः यह सूत्र एक bridge की तरह है
जो दोनों को आपस में बांध के रखता है
'द्रव्य' शब्द की व्युत्पत्ति द्रूश् धातु से हुई है - द्रूयंते, द्रवति, द्रोश्यन्ति
जिसका मतलब होता है जो कभी चलता है, परिणमन करता है
अपने अन्दर कुछ न कुछ प्राप्त करता रहता है
द्रव्य शब्द तीन काल को समाहित किए हुए है द्रव्य जैसा पहले था, वैसा अभी भी है और आगे भी वैसा ही रहेगा
प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभाव के अनुसार ही परिणमन करता है
अगर ऐसा न हो तो धर्म द्रव्य अधर्म द्रव्य बन जाए या पुद्गल ही जीव बन जाए
पर-वस्तुओं की सहायता से द्रव्य के परिणमन की गति प्रभावित तो हो सकती है
जैसे पाला में आम जल्दी पक जाता है
पर ऐसा इसलिए होता है क्योंकि द्रव्य जैसा परिणमन करना चाह रहा है, वैसा कर रहा है
विज्ञान सिर्फ पुद्गल द्रव्य के अन्दर की potentiality, संभावनाओं को उभार कर सामने लाता है
लेकिन सब potentiality उस द्रव्य की अपनी nature होती हैं
हमने जाना कि जीव द्रव्य के परिणमन में छहों द्रव्य सहायक हैं
शुद्ध जीव का शुद्ध रूप परिणमन भी पर-द्रव्य के सापेक्ष होता है