श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 10
सूत्र - 06
सूत्र - 06
सबके लिए क्षमा भाव धारण करना पहला धर्म। उत्तम मार्दव धर्म। आर्जव धर्म, शौच धर्म। उत्तम सत्य धर्म, उत्तम संयम धर्म। तप धर्म और त्याग धर्म। अकिंचन धर्म। ब्रह्मचर्य धर्म।
उत्तम-क्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत्य-संयम-तपस्त्यागा-किञ्चन्य ब्रह्मचर्याणि धर्म:॥9.6॥
15, oct 2024
Priti Pankaj Ambekar
Dongaon
WINNER-1
Pradeep Jain
Faridabad
WINNER-2
Manoj kumar Jain
Shirpur
WINNER-3
निम्न में से मृदुता का विपरीत क्या होगा?
क्रोध का भाव
मान का भाव*
ऋजुता का भाव
कपट का भाव
संवर निर्जरा के प्रकरण में आज हमने सूत्र छह में दस धर्मों को जाना
ये सभी आपस में connected हैं।
एक के करने से आगे-आगे के होते जाते हैं।
सबसे पहले क्षमा धर्म आता है
क्षमा अर्थात् प्रतिकूलता में भी क्रोध नहीं करना
कोई अपने ऊपर उपद्रव करे,
उपसर्ग करे,
बुरा-भला कहे
तो भी उसके प्रति अपने
विचारों में भी मलिनता नहीं लाना।
धर्म के मार्ग पर-
सबसे पहला विकार क्रोध आता है
जिससे दूसरे के प्रति द्वेष होता है
और हम स्व और पर दोनों को नुकसान पहुँचाते हैं।
इसलिए सबसे पहले
क्षमा से - क्रोध कषाय जीती जाती है
इसके बिना समितियों में प्रवृत्ति नहीं हो सकती।
क्षमा भाव आने से मृदुता भी आने लगती है
क्योंकि द्वेष होने पर ही कठोर व्यवहार होता है
मृदुता का उल्टा
मान भाव,
अहं भाव होता है
जिसमें हम कठोर हो जाते हैं।
मान के कारण हम दूसरे को झुकाते हैं
स्वयं नहीं झुकते
और जब द्वेष नहीं होता तो कठोरता भी नहीं रहती
मृदुता ही रहती है।
हमने जाना - साधु अपनी वृत्तियों को संकुचित करने के लिए
अपने नियम का पालन करने के लिए,
दोषों से बचने के लिए,
अपने आचरण के प्रति कठोर होते हैं।
वे सबसे पहला ध्यान अपने आचरण पर देते हैं,
दूसरा क्या सोच रहा है यह secondary matter होता है।
साधु को समझने के लिए हमें,
उनके प्रति सही attitude रखना चाहिए।
मृदुता होने से ऋजुता भी आ जाती है।
क्योंकि मृदुता में मन कोमल होता है,
उसमें किसी तरह का fraud नहीं होता,
तो मन-वचन-काय की सरल प्रवृत्ति से
ऋजुता का धर्म अपने आप आ जाता है।
क्योंकि मान कषाय में
दूसरे से द्वेष करके
उससे खुद को अच्छा दिखाने की चेष्टा में
छल-कपट होता है।
मृदुता होगी तो मायाचारी रहेगी ही नहीं
और आर्जव धर्म आ जाएगा।
शौच का मतलब होता है
शुचिता, पवित्रता, सन्तोष भाव।
जिसके मन में क्रोध नहीं,
मद नहीं,
कपट नहीं,
उसका मन अपने आप पवित्र हो जाता है।
क्योंकि इन तीन विकारों के अभाव से ही पवित्रता आती है
इसलिए शौच धर्म आर्जव के बाद आता है।
मन पवित्र होने से
ह्रदय से वचन भी सत्य निकलेंगे
जो लोगों को प्रिय लगेंगे,
समझ में आएँगे,
हितकारी होंगे,
और उनके ऊपर प्रभाव डालेंगे।
सत्यता से संयम का भाव आता है।
सत्यता वचनों के साथ विचारों में भी होती है।
जब जीवन की सत्यता,
संसार, शरीर भोगों की सत्यता का ज्ञान होगा
तो संयम की भी समझ आएगी।
संयम मतलब
प्राणी संयम,
और इन्द्रिय संयम।
जो संयम में निष्णात हो जाता है
वही अपनी इच्छाओं को रोक कर तप करता है।
संयम बिना तप लाभकारी नहीं होता।
तप करने से अन्तरंग से दोष निष्कासित कर देना,
उनका परिहार कर देना,
उन पर विजय प्राप्त कर लेना
भीतरी त्याग आत्मा का धर्म होता है।
बाह्य त्याग अलग होता है।
त्याग होने पर अपनी इच्छा से
सभी बाहरी चीजों का,
दोषों का,
विकृत मानसिकताओं का त्याग होने पर
साधु अकिंचन हो जाते हैं।
अकिंचन मतलब - ‘न कुछ मेरा, न कोई मेरा’।
इसी अनुभूति में
निश्चिन्तता से सन्तुष्ट होने पर
वे शुद्ध आत्मा की,
ब्रह्म की
शरण में जाएँगे।
इसी ब्रह्म भाव में,
आत्मा के शुद्ध भाव में,
शुद्ध ज्ञान में,
शुद्ध स्वरूप में रमण करना ब्रह्मचर्य होता है।
बाह्य में अपनेपन का भाव
भीतरी ब्रह्म में रमण करने में बाधा डालता है
इसलिए अकिंचन भाव से ही ब्रह्मचर्य धर्म आता है।
ब्रह्म में चर्या होने पर धर्म पूरे हो जाते हैं।
इसके बाद उपदेश देने की जरूरत नहीं रहती,
अब वे खुद अपने गुरु बन जाते हैं।