श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 22
सूत्र - 14,15,16
सूत्र - 14,15,16
सम्यग्दृष्टि, संयमी, चारित्रधारीओ में कैसे होते है, अदर्शन परीषह के निमित्त? अलाभ परीषह , अन्तराय कर्म के उदय से। अलाभ परीषह के स्वरूप का उदाहरण सहित विवेचन। कौन होता है, अलाभ परीषह जयी? चारित्र मोहनीय कर्म के उदय में सात परीषह होते है। निषद्या परीषह में होती है, मान कषाय की मुख्यता। आक्रोश परीषह में मान कषाय की भूमिका। याचना, सत्कार-पुरस्कार परीषह...मान कषाय के कारण। मान कषाय की कमी, बनाती है परीषह जयी। वेदनीय कर्म के उदय मेंं होते है-11 परीषह। वेदनीय कर्म के उदय मेंं होने वाले परीषह को जीतना, असाता वेदनीय कर्म के उदय को जीतना।
दर्शन-मोहान्तराययो-रदर्शना-लाभौ॥9.14॥
चारित्र-मोहेनाग्न्या-रति-स्त्री-निषद्या-क्रोश-याचना-सत्कार-पुरस्कारा: ॥9.15॥
वेदनीये शेषाः॥9.16॥
08, nov 2024
WINNER-1
WINNER-2
WINNER-3
आक्रोश कौन से कर्म के उदय में होने वाला परिषह है?
वेदनीय
दर्शन मोहनीय
चारित्र मोहनीय*
अंतराय
परीषह के प्रकरण में हमने जाना
अदर्शन-परीषह दर्शनमोहनीय की
सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में होता है
इसमें मिथ्यादृष्टि जीवों से comparison का भाव आता है
जैसे कोई बाबा बहुत popular हो जाए
कि उसके पास जाने से
सारी समस्यायें solve हो जाती हैं।
सभी लोग उसे मानने लगें।
या कोई बाबा चमत्कार फैला दे
कि उस मन्दिर के देवता दूध पीते हैं आदि।
इस तरह की विसंगतियों को देखकर
यह भाव आना कि
इन्हें तो यह सब हो रहा है
हमें कुछ क्यों नहीं हो रहा!
यह अदर्शन परीषह होता है।
इसमें चलायमान तो होते हैं
किन्तु सम्यग्दर्शन छूटता नहीं।
मुनिराज इससे खेद-खिन्न नहीं होते
वे जानते हैं कि मिथ्या-दृष्टि ऐसा करते रहते हैं
इससे कुछ नहीं होता।
इस चिन्तन से वे अदर्शन परीषह जीतते हैं।
अन्तराय कर्म के उदय में अलाभ-परीषह होता है।
यहाँ मुख्यता लाभ-अन्तराय की है
जो लाभ नहीं होने देता
मुनि-महाराज जंगल में फंस सकते हैं
या ऐसे स्थान पर पहुँच सकते हैं जहाँ
वे आहार के लिए निकलें
और उन्हें कोई पड़गाहने वाला नहीं मिले
या कोई बस्ती ही ना मिले।
इच्छा होते हुए भी
आहार का कोई निमित्त ही ना मिले।
जैसे जब चन्द्रगुप्त मौर्य भद्रबाहु स्वामी के साथ दीक्षा लेकर
श्रवणबेलगोला पहुँचे थे
तब उन्हें कुछ दिन आहार नहीं मिलने पर
देवों ने नगर बसाया था।
यह हमें मुनि श्री द्वारा रचित जैन सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य नामक book में
पढ़ने को मिलता है।
यह परीषह महापुरुषों को भी हुए हैं
आदिनाथ भगवान को भी छह महीने तक विधि नहीं मिली थी।
अलाभ को भी लाभ मानकर
मुनिराज इसे जीतते हैं।
वे विचारते हैं कि भोजन तो हम जन्मों से कर रहे हैं
आज अलाभ से इच्छा का निरोध हो गया
और इस तप से हमें निर्जरा करने को मिल गई।
सूत्र पन्द्रह चारित्र-मोहेनाग्न्या-रति-स्त्री-निषद्या-क्रोश-याचना-सत्कार-पुरस्कारा: में हमने जाना कि
चारित्रमोहनीय कर्म के उदय में सात परीषह होते हैं-
नाग्न्य,
अरति,
स्त्री,
निषद्या,
आक्रोश,
याचना, और
सत्कार-पुरस्कार।
चारित्र-मोहनीय में क्रोध-मान-माया-लोभ कषाय
और नोकषाय आती हैं।
अरति परीषह- अरति नोकषाय से
और स्त्री परीषह- पुरुषवेद नोकषाय के कारण होता है।
शेष पाँच, मुख्यतया संज्वलन मान-कषाय से होते हैं।
मान कषाय नग्नता में लज्जा अनुभव कराकर
नाग्न्य परीषह कराती है।
मान-कषाय के कारण ही
बैठने में स्थिरता नहीं आती,
हिलने-डुलने का या,
उठने का भाव आता है,
सामायिक, ध्यान में मन नहीं लगता।
यहाँ न बैठ पाने का कारण
दर्द नहीं होता
अपितु चारित्रमोहनीय होता है
जो चारित्र को मोहित करता है
और निषद्या परीषह कराता है।
आक्रोश परीषह में होता तो क्रोध है
पर वह मान के through होकर आता है
किसी के कुछ कहने पर
पहले यह भाव आता है कि
इसने मुझे कहा-
मुझे! इतने बड़े मुनि को!
उसके बाद क्रोध आता है।
मान के उदय में
माँगते हुए भी दीनता महसूस नहीं होने से
याचना परीषह होता है।
स्वाभिमानी मनुष्य कभी याचना नहीं करता।
मान कषाय के कारण ही सत्कार-पुरस्कार परीषह में
‘मेरा नाम नहीं बोला’,
‘मेरे गुणगान नहीं किए’,
अदि भाव होते हैं।
चारित्र मोहनीय कर्म
और विशेषकर मान कषाय
की कमी रखने से
ये परिषह जीते जाते हैं।
मान है तो कष्ट होता है,
मान नहीं है तो कोई फर्क ही नहीं पड़ता।
सूत्र सोलह - वेदनीये शेषाः में अनुसार शेष ग्यारह परीषह
वेदनीय कर्म के उदय में होते हैं।
असाता वेदनीय के उदय में ही
भूख-प्यास लगेगी,
शीत-उष्ण की बाधा होगी,
मच्छरों से परेशानी होगी,
चलने में,
सोने में,
वध होने पर,
रोग में,
तृणस्पर्श होने पर और
शरीर में मैल आदि लग जाने पर वेदना होगी।
इसलिए इन परिषहों को जीतने से
असाता-वेदनीय का उदय भी जीत लिया जाता है।