श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 19
सूत्र - 19,20
Description
व्रती के भेद।भावरूप परिभाषा। अगारी के लक्षण। पाक्षिक श्रावक। पाक्षिक श्रावक व्रतों का पालन निर्दोष रूप से नहीं कर पाता। नैष्ठिक श्रावक।
Sutra
अगार्यनगारश्च।।7.19।।
अणुव्रतोऽगारी ।।7.20।।
Watch Class 19
WINNERS Day 19
08th, Jan 2024
Manoj Jain
Muzaffarnagar
WINNER-1
अंजली जैन
नई दिल्ली
WINNER-2
Manju
Gurugram
WINNER-3
Sawal (Quiz Question)
अनगार क्या होता है?
घर से रहित*
घर से सहित
अग्नि
नागरिक
Abhyas (Practice Paper):
Summary
सूत्र उन्नीस अगार्यनगारश्च के अनुसार व्रती दो प्रकार के होते हैं
अगारी के पास घर, जायदाद, आदि होते हैं और वे गृह में रहकर व्रत पालन करते हैं
अनगारी गृह त्याग कर व्रत पालन करते हैं
अगारी को देशव्रती और अनगारी को महाव्रती कहा जाता है
हमने जाना कि
जिनके पास घर हैं वे अगारी
और जिनके पास घर नहीं है वे अनगारी
ये परिभाषायें भी त्रुटि को प्राप्त हैं
इनकी व्याप्ति ठीक नहीं बैठती
इसलिए इनको हमें भावरूप लेना चाहिए
जिसके मन में घर बसा है वह अगार होता है
फिर चाहे वह platform पर, चौराहे पर या कहीं भी बिना घर के रहे
इसी प्रकार अनगार के मन में घर नहीं होता है
चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त क्षयोपशम चारित्र के कारण उसका बाहरी धन-धान्य आदि में ममत्व भाव नहीं होता
वह समय-समय पर कुछ निश्चित अवधि के लिए धर्मशाला, मंदिर आदि स्थानों पर रुकता अवश्य है
पर उनसे उसका ममत्व नहीं होता
इसलिए वह अनगार बना रहता है
सूत्र बीस अणुव्रतोऽगारी के अनुसार अगारी व्रती घर में रहकर के भी कम से कम पाँच अणुव्रतों का संकल्प पूर्वक पालन करते हैं
उनका संकल्प नियम से अतिचार रहित होकर पालन करने के भाव से होता है
आचार्यों ने गृहस्थ अगारी श्रावकों के तीन भेद बताये हैं
पहला श्रावक पाक्षिक श्रावक है
इनके अंदर जिनेन्द्र भगवान का पक्ष दृढ़ता से बना रहता है
देव-शास्त्र-गुरु की प्रतीति यथार्थ में आती है
इस कारण सप्त तत्त्व का श्रद्धान और सम्यग्दर्शन भी बनता है
लेकिन ये कोई व्रत, अणुव्रत नहीं लेते हैं
फिर भी छोटे-छोटे नियमों का सदोष पालन करते रहते हैं
ये कम से कम सप्त-व्यसन त्यागी और अष्ट मूलगुण धारी होते हैं
चरित्र मोहनीय कर्म का उदय के कारण क्वचित्-कदाचित इनमें भी दोष लग जाते हैं
इनके निरतिचार व्रत पालन का संकल्प नहीं होता
लेकिन इनकी जिनेंद्र भगवान और जिनधर्म के प्रति यथार्थ श्रद्धा बनी रहती है
ये एक तरह से अविरत सम्यग्दृष्टि हैं
पाक्षिक श्रावक सही ढंग से व्रत पालन की कोशिश करता है
लेकिन कभी-कभी उसके अंदर दोष का भाव आ जाता है
जैसे medicine, injection, sanitizer आदि चीजों के सेवन में indirectly मद्य-मांस-मधु आदि आ जाता है जिससे अष्ट मूलगुण पालन में दोष लगता है
व्यापार में share आदि के काम में वह दाँव लगाता है जिससे जुआ-त्याग व्यसन में दोष लगता है
उसके लिए यह सब चीजें निषिद्ध नहीं हैं
दूसरा श्रावक नैष्ठिक श्रावक होता है
जो दर्शनादि ग्यारह प्रतिमाओं के रूप में व्रत पालन करने का भाव करता है
यहीं से पाक्षिक श्रावक और नैष्ठिक श्रावक में अंतर हो जाता है
हमने जाना कि पहली दर्शन प्रतिमा का मतलब भगवान का दर्शन करने का संकल्प लेना नहीं है
बल्कि अपने अंदर की श्रद्धा को अपनी प्रतिमा यानि संकल्प के साथ जोड़ना है
इसमें सम्यग्दर्शन, अष्ट मूलगुणों और सप्त व्यसनों का निरतिचार पालन करना आ जाता है
वह पाँच अणुव्रतों को पालन करता है लेकिन वह सातिचार होता है
पाक्षिक श्रावक अष्ट मूलगुणों का सातिचार पालन करता है
लेकिन दर्शन प्रतिमा वाला श्रावक इनमें दोष नहीं लगाता
वह अणुव्रतों के पालन में सतर्कता बरतता है
लेकिन आठ मूलगुण का निर्दोष पालन करता है
किसी भी परिस्थिति में वह ऐसी चीजों का जिनमें मधु-मांस-मद्य आदि का पुट है
उनका सेवन नहीं करेगा
वह संकल्प पूर्वक त्रस हिंसा के दोष से बचता है
और दाल-सब्जियाँ,दूध, मसाले आदि इस तरह सेवन करता है
जिससे उनमें त्रस जीवों की उत्पत्ति न हो
इससे वह निर्दोषी श्रावक बन जाता है